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________________ २२२ समयसार तो वह उसी जलसमूह में आ मिलता है। यद्यपि यह काम आसान नहीं है; तथापि सम्भव है, असम्भव नहीं। इसीप्रकार अपने विज्ञानघनस्वभाव से भ्रष्ट विकल्पजाल के गहन वन में भ्रमित आत्मा का आत्मसम्मुख होना आसान नहीं है; तथापि यदि उसको भी विवेकरूपी ढालवाले मार्ग से निज विज्ञानघनस्वभाव की ओर बलपूर्वक मोड़ दिया जाये तो वह भी आत्मानुभव करने में समर्थ हो सकता है। तात्पर्य यह है कि आत्मानुभव की विधि यह है कि हम अपने उपयोग को पुरुषार्थपूर्वक स्व-स्वभाव की ओर मोड़ें, आत्मसन्मुख करें । (अनुष्टुभ् ) विकल्पकः परं कर्ता विकल्प: कर्म केवलम् । न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नश्यति ।।१५।। (रथोद्धता) यः करोति स करोति केवलं यस्तु वेत्ति स तु वेत्ति केवलम् । यः करोति न हि वेत्ति स क्वचित् यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित् ।।९६।। यह पुरुषार्थ की प्रेरणा देनेवाला कलश काव्य है। यह पुरुषार्थ भी अन्य कुछ भी नहीं; मात्र परसन्मुख अपने उपयोग को बलपूर्वक आत्मसन्मुख करना ही है। इसप्रकार इस कलश में इन्द्रियों के माध्यम से विषय-विकार में फँसे और नयों के विकल्पजाल में उलझे आत्मा को निजस्वभाव से भ्रष्ट बताकर, अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ द्वारा निज शुद्धात्मतत्त्व को प्राप्त करने की प्रेरणा दी गई है। इसप्रकार ९३ एवं ९४ इन दो कलशों में नयपक्षातीत भगवान आत्मा के प्रकरण का समापन करके अब आगामी ५ कलशों में सम्पूर्ण कर्ताकर्माधिकार का समापन करते हैं; जिसमें प्रथम कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (रोला) है विकल्प ही कर्म विकल्पक कर्ता होवे। जो विकल्प को करे वही तो कर्ता होवे ।। नित अज्ञानी जीव विकल्पों में ही होवे।। ___ इस विधि कर्ताकर्मभाव का नाश न होवे ।।१५।। विकल्प करनेवाला कर्ता है और वह विकल्प ही उसका कर्म है। इसप्रकार सविकल्पपुरुषों की कर्ताकर्मप्रवृत्ति कभी नष्ट नहीं होती। तात्पर्य यह है कि जबतक विकल्पभाव हैं, तबतक कर्ताकर्मभाव है और जब विकल्पों का अभाव हो जाता है, तब कर्ताकर्मभाव का भी अभाव हो जाता है। ध्यान रहे, यहाँ विकल्प का अर्थ मात्र विकल्प का उठना ही नहीं है, अपितु विकल्प में ममत्वबुद्धि एवं कर्तृत्वबुद्धि का नाम विकल्प है, मिथ्यात्व संबंधी विकल्प का नाम विकल्प है। चारित्रमोह संबंधी विकल्प यहाँ अपेक्षित नहीं है। यहाँ पर में और विकल्पों में एकत्व-ममत्व करनेवाले एवं विकल्पों का कर्ता स्वयं को माननेवाले को ही सविकल्पक कहा गया है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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