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________________ कर्ताकर्माधिकार १९१ यदि परिणमावे जीव पुद्गल दरव को कर्मत्व में। पर परिणमावे किसतरह वह अपरिणामी वस्तु को।।११८।। यदि स्वयं ही परिणमें वे पुद्गल दरव कर्मत्व में। मिथ्या रही यह बात उनको परिणमा आतमा ।।११९।। जड़कर्म परिणत जिसतरह पुद्गल दरव ही कर्म है। जड़ज्ञान-आवरणादि परिणत ज्ञान-आवरणादि हैं।।१२०।। जीवे न स्वयं बद्धं न स्वयं परिणमते कर्मभावेन । यदि पुद्गलद्रव्यमिदमपरिणामि तदा भवति ।।११६।। कार्मणवर्गणासु चापरिणममानासु कर्मभावेन । संसारस्याभाव: प्रसजति सांख्यसमयो वा ।।११७।। जीवः परिणामयति पुद्गलद्रव्याणि कर्मभावेन । तानि स्वयमपरिणममानानि कथंनुपरिणामयतिचेतयिता।।११८।। अथ स्वयमेव हि परिणमते कर्मभावेन पुद्गलं द्रव्यम् । जीवः परिणामयति कर्म कर्मत्वमिति मिथ्या ।।११९।। नियमात्कर्मपरिणतं कर्म चैव भवति पुद्गलं द्रव्यम् । तथा तद्ज्ञानावरणादिपरिणतं जानीत तच्चैव ।।१२०।। यदि पुद्गलद्रव्यं जीवे स्वयमबद्धं सत्कर्मभावेन स्वयमेव न परिणमेत तदा तदपरिणाम्येव स्यात् । तथा सति संसाराभावः। अथ जीव: पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणामयति ततो न संसाराभावः इति तर्कः। 'यह पुद्गलद्रव्य जीव में स्वयं नहीं बँधा और कर्मभाव से स्वयं परिणमित नहीं हआ' - यदि ऐसा माना जाये तो वह पुद्गलद्रव्य अपरिणामी सिद्ध होता है और कार्मणवर्गणाएँ कर्मभाव से परिणमित नहीं होने से संसार का अभाव सिद्ध होता है अथवा सांख्यमत का प्रसंग आता है। यदि ऐसा माना जाये कि जीव पुद्गलद्रव्यों को कर्मभाव से परिणमाता है तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि स्वयं नहीं परिणमती हई उन कार्मणवर्गणाओं को चेतन आत्मा कैसे परिणमन करा सकता है ? यदि ऐसा माना जाये कि पुद्गल द्रव्य अपने आप ही कर्मभाव से परिणमन करता है तो जीव कर्म (पुद्गलद्रव्य) को कर्मरूप परिणमन कराता है, यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है। अत: ऐसा जानो कि जिसप्रकार नियम से कर्मरूप (कर्ता के कार्यरूप) परिणमित पुद्गलद्रव्य कर्म ही है; उसीप्रकार ज्ञानावरणादिरूप परिणत पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादि ही है। इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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