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________________ १८३ कर्ताकर्माधिकार यदि कोई कहे कि यह किसप्रकार है तो उससे कहते हैं कि - जिसप्रकार युद्ध परिणाम में स्वयं परिणमित होते हुए योद्धाओं के द्वारा युद्ध किये जाने पर, युद्ध परिणाम में स्वयं परिणमित नहीं होनेवाले राजा में 'राजा ने युद्ध किया' - ऐसा उपचार किया जाता है, वह मात्र उपचार है, परमार्थ नहीं। तथा ज्ञानावरणादिकर्मपरिणामेन स्वयं परिणममानेन पुदगलद्रव्येण कृते ज्ञानावरणादिकर्मणि ज्ञानावरणादिकर्मपरिणामेन स्वयमपरिणममानस्यात्मन: किलात्मना कृतं ज्ञानावरणादिकर्मेत्युपचारो, न परमार्थः॥१०५-१०६ ।। अत एतत्स्थितम् - उप्पादेदि करेदियबंधदि परिणामएदि गिण्हदिया आदा पोग्गलदव्वं ववहारणयस्स वत्तव्वं ।।१०७।। जह राया ववहारा दोसगुणुप्पादगो त्ति आलविदो । तह जीवो ववहारा दव्वगुणुप्पादगो भणिदो।।१०८।। उसीप्रकार ज्ञानावरणादि कर्मपरिणामरूप स्वयं परिणमते हुए पुद्गल द्रव्य के द्वारा ज्ञानावरणादि कर्म किये जाने पर, ज्ञानावरणादि कर्म परिणामरूप स्वयं परिणमित नहीं होनेवाले आत्मा में आत्मा ने ज्ञानावरणादि कर्म किये - ऐसा उपचार किया जाता है; वह मात्र उपचार है, परमार्थ नहीं।" उक्त गाथाओं का भाव अत्यन्त सरल एवं सहज है। आचार्यदेव एकदम स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं कि यह तो मात्र उपचरित कथन है कि जीव ने ज्ञानावरणादि कर्म किये । वस्तुत: विचार करें तो एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता न होने से आत्मा ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता हो ही नहीं सकता। देखो, यहाँ यह कहा जा रहा है कि आत्मा को कर्मों का कर्ता कहना उसीप्रकार का अत्यन्त स्थूल उपचरित कथन है कि जिसप्रकार सैनिकों के द्वारा किये गये युद्ध को राजा द्वारा किया गया कहना है। राजा तो युद्ध के मैदान में गया ही नहीं है, आराम से राजमहल में ही रहा है और सैनिक ही रचे-पचे थे, तब भी युद्ध करनेवालों के रूप में सैनिकों का नाम भी न लेना और यह कहना कि राजा ने युद्ध किया है। __ जिसप्रकार यह कहना कथन मात्र है, उसीप्रकार जो कार्माण वर्गणा कर्मरूप परिणमित हुई है, उसका तो नाम भी न लेना और जो आत्मा कर्म के परिणमन में निमित्त भी नहीं है, उसको कर्मों का कर्ता कहना भी कथन मात्र ही है। विगत गाथाओं में यह बात हाथ पर रखे आँवले के समान स्पष्ट हो गई है कि आत्मा परभावों का न तो उपादानकर्ता ही है और न निमित्तकर्ता ही; फिर भी लोक में आत्मा को परभावों का कर्ता-भोक्ता कहा जाता है। न केवल लोक में, आगम में भी इसप्रकार के अनेक कथन उपलब्ध
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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