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________________ १८२ समयसार है कि आत्मा ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता है। अब आगामी गाथाओं में उक्त समस्याओं का समाधान करते हुए सोदाहरण यह समझाया जा रहा है कि यह तो मात्र उपचार है। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - अतोऽन्यस्तूपचार: जीवम्हि हेदुभूदे बंधस्स दुपस्सिदूण परिणामं । जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमेत्तेण ।।१०५।। जोधेहिं कदे जुद्धे राएण कदं ति जंपदे लोगो। ववहारेण तह कदं णाणावरणादि जीवेण ।।१०६।। जीवे हेतुभूते बंधस्य तु दृष्ट्वा परिणामम् । जीवेन कृतं कर्म भण्यते उपचारमात्रेण ।।१०५।। योधैः कृते युद्धे राज्ञा कृतमिति जल्पते लोकः । व्यवहारेण तथा कृतं ज्ञानावरणादि जीवेन ।।१०६।। इह खलु पौद्गलिककर्मणः स्वभावादनिमित्तभूतेऽप्यात्मन्यनादेरज्ञानात्तन्निमित्तभूतेनाज्ञानभावेन परिणमनानिमित्तीभूते सति संपद्यमानत्वात् पौद्गलिकं कर्मात्मना कृतमितिनिर्विकल्पविज्ञानघनभ्रष्टानां विकल्पपरायणानां परेषामस्ति विकल्पः । स तूपचार एव न तु परमार्थः। कथमिति चेत् - यथा युद्धपरिणामेन स्वयं परिणममानैः योधैः कृते युद्धे युद्धपरिणामेन स्वयम-परिणममानस्य राज्ञो राज्ञा किल कृतं युद्धमित्युपचारो, न परमार्थः। (हरिगीत ) बंध का जो हेतु उस परिणाम को लख जीव में। करम कीने जीव ने बस कह दिया उपचार से ।।१०५।। रण में लड़े भट पर कहे जग युद्ध राजा ने किया। बस उसतरह द्रवकर्म आतम ने किये व्यवहार से ।।१०६।। जीव के निमित्तभूत होने पर कर्मबंध का परिणाम होता हुआ देखकर 'जीव ने कर्म किया' - इसप्रकार मात्र उपचार से कह दिया जाता है। जिसप्रकार योद्धाओं के द्वारा युद्ध किये जाने पर राजा ने युद्ध किया' - इसप्रकार लोग कहते हैं; उसीप्रकार ज्ञानावरणादि कर्म जीव ने किया - ऐसा व्यवहार से कहा जाता है। आत्मख्याति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "यद्यपि इस लोक में यह आत्मा स्वभाव (परमार्थ) से पौद्गलिक कर्मों का निमित्त भी नहीं है; तथापि जो अज्ञानभाव पौद्गलिक कर्मों का निमित्तभूत है, अनादि अज्ञान के कारण उस अज्ञानभावरूप परिणमित होने से पौद्गलिक कर्म आत्मा ने किये-ऐसा विकल्प निर्विकल्प विज्ञानघनस्वभाव से भ्रष्ट विकल्पपरायण अज्ञानियों को होता है और वह विकल्प मात्र उपचार ही है, परमार्थ नहीं।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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