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________________ १६० समयसार को समझाया गया है। मोर में दिखाई देनेवाले नीले, हरे, पीले रंग तो मोर से अभिन्न होने से मोर ही हैं; किन्तु दर्पण में प्रतिबिम्बित होनेवाले मोर में जो नीले, हरे, पीले रंग आदि दिखाई देते हैं, उनमें मोर का कुछ भी नहीं है; क्योंकि वे तो मोर के निमित्त से होनेवाले दर्पण के ही परिणमन हैं, मोर के नहीं । तात्पर्य यह है कि दर्पण में दिखाई देनेवाला मोर मोर है ही नहीं, वह तो दर्पण ही है। मिथ्यादर्शनादिश्चैतन्यपरिणामस्य विकारः कुत इति चेत् - उवओगस्स अणाई परिणामा तिण्णि मोहजुत्तस्स । मिच्छत्तं अण्णाणं अविरदिभावो य णादव्वो ।।८९।। उपयोगस्यानादयः परिणामास्त्रयो मोहयुक्तस्य । मिथ्यात्वमज्ञानमविरतिभावश्च ज्ञातव्यः ।।८९।। उपयोगस्य हि स्वरसत एवं समस्तवस्तुस्वभावभूतस्वरूपपरिणामसमर्थत्वेसत्वनादिवस्त्वंतरभूतमोहयुक्तत्वान्मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरिति त्रिविधः परिणामविकारः। स तु तस्य स्फटिकस्वच्छताया इव परतोऽपि प्रभवन् दृष्टः । यथा हि स्फटिकस्वच्छताया:स्वरूप -परिणामसमर्थत्वे सति कदाचिन्नीलहरितपीततमालकदलीकांचनपात्रोपाश्रययुक्तत्वान्नीलो हरित: पीत इति त्रिविधः परिणामविकारो दृष्टः; तथोपयोगस्यानादिमिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिस्वभाववस्त्वंतरभूतमोहयुक्तत्वान्मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरिति त्रिविध: परिणामविकारो: दृष्टव्यः ।।८९।। इसीप्रकार जो कार्माणवर्गणारूप पौदगलिक स्कंध मिथ्यात्वादि प्रकृतियों रूप परिणमित होते हैं, वे मिथ्यात्वादि प्रकृतियाँ तो द्रव्यमिथ्यात्वादि हैं, अजीवमिथ्यात्वादि हैं; किन्तु उन्हीं मिथ्यात्वादि कर्मों के उदयानुसार जीव में होनेवाले परकर्तृत्वादिबुद्धिरूप मिथ्यात्वादिभाव जीव के विकार होने से जीव हैं । इसप्रकार मिथ्यात्व, अज्ञान और असंयम आदि जीवरूप भी होते हैं और अजीवरूप भी। अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि मिथ्यात्वादि भाव आये कहाँ से और ये आत्मा के साथ कब से हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में ८९वीं गाथा लिखी गई है, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) उपयोग के परिणाम तीन अनादि से। जानो उन्हें मिथ्यात्व अविरतभाव अर अज्ञान ये।।८९।। मोहयुक्त उपयोग के मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरतिभाव - ये तीन परिणाम अनादि से ही जानना चाहिए। उक्त गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - “यद्यपि निश्चय से निजरस से ही समस्त वस्तुओं में अपने स्वभावभूत स्वरूपपरिणमन की सामर्थ्य होती है; तथापि इस आत्मा के उपयोग का अनादि से ही अन्य वस्तुभूत मोह के साथ संयुक्तपना होने से मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरति के भेद से तीन प्रकार का परिणामविकार है। उपयोग का वह परिणामविकार स्फटिक की स्वच्छता के परिणामविकार की भाँति पर के कारण (पर की उपाधि से) उत्पन्न होता दिखाई देता है। जिसप्रकार यद्यपि स्फटिकमणि अपने स्वरूप-परिणमन में समर्थ है; तथापि कदाचित् काले रंग के तमालपत्र, हरे रंग के केले के पत्ते और पीले रंग के स्वर्णपात्र के आधार का संयोग निजरस से ही समस्त नादि से ही अन्य वस्तु विकार है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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