SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्ताकर्माधिकार १५९ जीवमिथ्यात्व और अजीवमिथ्यात्व के भेद से मिथ्यात्व दो प्रकार का है। इसीप्रकार अज्ञान, अविरति, योग, मोह और क्रोधादि भी जीव और अजीव के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं। जो मिथ्यात्व, योग, अविरति और अज्ञान अजीव हैं; वे तो पौद्गलिक कर्म हैं और जो अज्ञान, अविरति और मिथ्यात्व जीव हैं, वे उपयोग हैं। मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो हि भावा: ते तु प्रत्येकं मयूरमुकुरंदवज्जीवाजीवाभ्यां भाव्य-मानत्वाजीवाजीवौ। तथाहि - यथा नीलहरितपीतादयो भावाः स्वद्रव्यस्वभावत्वेन मयूरेण भाव्यमानाः मयूर एव, यथा च नीलहरितपीतादयो भावाः स्वच्छताविकारमात्रेण मुकुरंदेन भाव्यमाना मुकुरंद एव। तथा मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो भावा:स्वद्रव्यस्वभावत्वेनाजीवेन भाव्यमाना अजीव एव, तथैव च मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो भावाश्चैतन्यविकारमात्रेण जीवेन भाव्यमाना जीव एव। काविह जीवाजीवाविति चेत् - यः खलु मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादिरजीवस्तदमूर्ताच्चैतन्यपरिणामादन्यत् मूर्तं पुद्गलकर्म, यस्तु मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादिः जीव: स मूर्तात्पुद्गलकर्मणोऽन्यश्चैतन्यपरिणामस्य विकारः ।।८७-८८ ।। इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति आदि सभी भाव मोर और दर्पण के समान जीव और अजीव के द्वारा भाये जाने से जीव भी हैं और अजीव भी हैं। अब इसी बात को विस्तार से स्पष्ट करते हैं - जिसप्रकार नीला, हरा और पीला आदि वर्णरूप भाव मोर के स्वयं के स्वभाव होने से मोर के द्वारा ही भाये जाते हैं, मोर में ही पाये जाते हैं; अत: वे मोर ही हैं; किन्तु दर्पण में प्रतिबिम्बरूप से दिखाई देनेवाले नीले, हरे, पीले आदि वर्णरूप भाव, दर्पण की स्वच्छता के विकारभाव से दर्पण द्वारा भाये जाने से, दर्पण में ही पाये जाने से, दर्पण ही हैं, मोर नहीं। ठीक इसीप्रकार मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति आदि पौद्गलिक कर्मरूपभाव अजीव के स्वयं के स्वभाव होने से अजीव द्वारा ही भाये जाते हैं, अजीव में ही पाये जाते हैं; अत: अजीव ही हैं; किन्तु पुद्गलकर्म के उदयानुसार आत्मा में उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादर्शन, अज्ञान और असंयम आदि भाव चैतन्य के भाव होने से जीव के द्वारा ही भाये जाते हैं, जीव में पाये जाते हैं; अत: जीव ही हैं। अत: यह सुनिश्चित ही है कि निश्चय से जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरति आदि अजीव हैं; वे तो अमूर्तिक चैतन्यपरिणामों से भिन्न मूर्तिक पुद्गलकर्म हैं और जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरति आदि जीव हैं; वे मूर्तिक पुद्गलकर्म से भिन्न चैतन्यपरिणाम के विकार हैं।" ___तात्पर्य यह है कि वे मिथ्यात्वादि भाव चेतन के विकार भी हैं और पौद्गलिक कर्मों की प्रकृतियाँ भी हैं, इसकारण चेतन भी हैं और अचेतन भी हैं। यहाँ मोर और दर्पण में प्रतिबिम्बित मोर के उदाहरण के माध्यम से जीव और अजीव मिथ्यात्वादि
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy