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________________ कर्ताकर्माधिकार १५१ यथा स एव च भाव्यभावकभावाभावात्परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वादुत्तरंगं निस्तरंगं त्वात्मानमनुभवन्नात्मानमेकमेवानुभवन् प्रतिभाति न पुनरन्यत् । तथा ससंसारनि:संसारावस्थयोः पुद्गलकर्मविपाकसंभवासंभवनिमित्तयोरपि पुद्गलकर्मजीवयोर्व्याप्यव्यापकभावाभावात्कर्तृकर्मत्वासिद्धौ जीव एव स्वयमंतर्व्यापको भूत्वादिमध्यांतेषु ससंसारनि:संसारावस्थे व्याप्य ससंसारं निःसंसारं वात्मानं कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभातु मा पुनरन्यत् । तथायमेव च भाव्यभावकभावाभावात् परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वात्संसारं निःसंसारं वात्मानमनुभवन्नात्मानमेकमेवानुभवन् प्रतिभातु, मा पुनरन्यत् ।। ८३ ।। जिसप्रकार वही समुद्र भाव्य-भावकभाव के अभाव के कारण परभाव का पर के द्वारा अनुभवन अशक्य होने से, स्वयं को उत्तरंग और निस्तरंगरूप अनुभव करता हुआ; केवल स्वयं को ही अनुभव करता हुआ प्रतिभासित होता है, अन्य को अनुभव करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता । उसीप्रकार जीव की संसार और निःसंसार (मुक्त) अवस्थाओं में क्रमश: पुद्गलकर्म के विपाक (उदय) का होना और नहीं होना निमित्त होने पर भी पुद्गलकर्म और जीव में व्याप्यव्यापकभाव का अभाव होने से कर्ताकर्मपने की असिद्धि है; इसकारण जीव स्वयं अन्तर्व्यापक होकर - संसार अथवा निःसंसार अवस्था में आदि-मध्य-अन्त में व्याप्त होकर, संसार और असंसार रूप अपने को करता हुआ; केवल स्वयं को ही करता प्रतिभासित हो, अन्य को करता हुआ प्रतिभासित न हो । इसीप्रकार वही जीव भाव्य-भावकभाव के अभाव के कारण परभाव का पर के द्वारा अनुभव अशक्य होने से, स्वयं को संसाररहित और संसारसहित अनुभव करता हुआ; केवल स्वयं को ही अनुभव करता हुआ प्रतिभासित हो, अन्य को अनुभव करता हुआ प्रतिभासित न हो ।' उक्त कथन में यह बताया गया है कि जिसप्रकार समुद्र की तरंगित और निस्तरंग अवस्थाओं में वायु के चलने और नहीं चलने की निमित्तता को स्वीकार करते हुए भी उनमें परस्पर व्याप्यव्यापकभाव एवं भाव्य-भावकभाव के अभाव के कारण उन्हें उनका कर्ता-भोक्ता नहीं माना जाता; अपितु व्याप्य-व्यापकभाव और भाव्य-भावकभाव के सद्भाव के कारण समुद्र को ही उसकी दोनों अवस्थाओं का कर्ता-भोक्ता कहा जाता है । ठीक उसीप्रकार आत्मा की विकारी और निर्विकारी अवस्थाओं में पुद्गलकर्म के उदय और अनुदय की निमित्तता होने पर भी उनमें परस्पर व्याप्य व्यापकभाव और भाव्य-भावकभाव के अभाव के कारण आत्मा की विकारी और निर्विकारी अवस्थाओं का कर्ता-भोक्ता कर्म के उदयअनुदय को नहीं कहा जा सकता; अपितु व्याप्य व्यापकभाव और भाव्य-भावकभाव के सद्भाव
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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