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________________ जीवाजीवाधिकार १११ इन गाथाओं की टीका समाप्त करते हुए उपसंहार के रूप में आचार्य अमृतचन्द्र कलशरूप काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (शालिनी) वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा भिन्ना भावा: सर्व एवास्य पुंसः। तेनैवांतस्तत्त्वत: पश्यतोऽमी नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात् ।।३७।। नन वर्णादयो यद्यमी न संति जीवस्य तदा तन्त्रांतरे कथं संतीति प्रज्ञाप्यते इति चेत - ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया। गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स ।।५६।। एदेहिं य सम्बन्धो जहेव खीरोदयं मुणेदव्वो। ण य होंति तस्स ताणि दु उवओगगुणाधिगो जम्हा ।।५७।। व्यवहारेण त्वेते जीवस्य भवंति वर्णाद्याः । गुणस्थानांता भावा न तु केचिन्निश्चयनयस्य ।।५६।। (दोहा) वर्णादिक रागादि सब, हैं आतम से भिन्न । अन्तर्दृष्टि देखिये, दिखे एक चैतन्य ।।३७।। वर्णादिक व राग-द्वेष-मोहादिक सभी २९ प्रकार के भाव इस भगवान आत्मा से भिन्न ही हैं। इसलिए अन्तर्दृष्टि से देखने पर भगवान आत्मा में ये सभी भाव दिखाई नहीं देते; किन्तु इन सबसे भिन्न एवं सर्वोपरि भगवान आत्मा ही एकमात्र दिखाई देता है। यद्यपि यहाँ वर्णादि से लेकर गुणस्थानपर्यन्त सभी २९ प्रकार के भावों को पौद्गलिक कहा गया है; तथापि उन्हें स्पष्टरूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक तो वे, जो स्पष्टरूप से पुद्गल हैं और जिनमें वर्ण, रस, गंध और स्पर्श पाये जाते हैं तथा दूसरे वे औपाधिकभाव, जो पुद्गलकर्म के उदय से आत्मा में उत्पन्न होते हैं। इस ३७वें कलश में उन २९ प्रकार के पौदगलिक भावों को वर्णादि और रागादि कहकर इसीप्रकार के दो भागों में विभाजित किया गया है। ___ “वर्णादि से लेकर गुणस्थान पर्यन्त जो २९ प्रकार के भाव कहे हैं, वे जीव नहीं हैं" - ऐसा आप बार-बार कह रहे हैं; परन्तु सिद्धान्तग्रन्थों में तो इन्हें भी जीव के बताया गया है। तत्त्वार्थसूत्र के दूसरे अध्याय के पहले सूत्र में औदयिकादि भावों को जीव का स्वतत्त्व कहा है। शिष्य की इस उलझन को मिटाने के लिए आगामी गाथाओं में यह स्पष्ट कर रहे हैं कि उन्हें व्यवहार से जीव के कहा है, पर वे निश्चय से जीव के नहीं हैं; क्योंकि उनमें जीव का असाधारण लक्षण उपयोग नहीं पाया जाता। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( हरिगीत )
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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