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________________ ११० समयसार (२७) चारित्रमोह के विपाक की क्रमशः निवृत्ति लक्षणवाले संयमलब्धिस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं । यानि पर्याप्तापर्याप्तबादरसूक्ष्मैकेंद्रियद्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियसंज्ञ्यसंज्ञिपंचेंद्रियलक्षणानि जीवस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न संति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमत्तसंयताप्रमत्तसंयतापूर्वकरणोपशमकक्षपकानिवृत्तिबादरसांपरायोपशमकक्षपकसूक्ष्मसांपरायोपशमक क्षपकोपशांतकषायक्षीणकषायसयोगकेवल्ययोगकेवलिलक्षणानि गुणस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न संति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । । ५०-५५ ।। (२८) पर्याप्त और अपर्याप्त - ऐसे बादर - सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी - असंज्ञी पंचेन्द्रिय लक्षणवाले जीवस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं । (२९) मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत - सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण उपशमक तथा क्षपक, अनिवृत्तिबादरसाम्पराय उपशमक तथा क्षपक, सूक्ष्मसाम्पराय - उपशमक तथा क्षपक, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली और अयोगकेवली भेदवाले गुणस्थान भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं । 99 इसप्रकार ये २९ प्रकार के सभी भाव पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से जीव नहीं हैं।' आचार्य अमृतचन्द्र की उक्त टीका में 'वे पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं' • यह वाक्य २९ बार दुहराया गया है। यह हेतु वाक्य है, जो उक्त भावों में जीवत्व का निषेध करने के लिए लिखा गया है। - वैसे सम्पूर्ण टीका अत्यन्त स्पष्ट है, सुलभ है; अतः इसके प्रतिपादन में कुछ भी लिखने की आवश्यकता नहीं है; फिर भी कुछ बिन्दु ऐसे हैं, जिनका स्पष्टीकरण अपेक्षित है। (क) यद्यपि रूप और वर्ण - ये दोनों शब्द पर्यायवाची शब्दों के रूप में प्रयुक्त होते हैं; पर यहाँ पाँच प्रकार के रंगों को वर्ण कहा गया है और वर्ण, रस, गंध और स्पर्श - इन चारों के मिले हुए रूप को रूप कहा गया है। २९ बोलों में पहला बोल वर्ण का है और पाँचवाँ बोल रूप का है। इन दोनों को ध्यान से देखने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है। (ख) ‘अध्यात्म' शब्द आत्मज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त होता है । 'अधि' अर्थात् जानना और 'आत्म' अर्थात् आत्मा को । इसप्रकार आत्मा को जानना अध्यात्म है, अतः आत्मज्ञान ही अध्यात्म है; पर यहाँ स्व और पर में एकत्व के अध्यास को अध्यात्मस्थान कहा गया है और इसे विशुद्ध चैतन्यपरिणाम से भिन्न बताया गया है । यह बात आप १८वें बोल के प्रकरण में देख सकते हैं ।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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