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________________ CREE FE से गणधर आदि मुनिजन, कल्पवासी देवियाँ, आर्यिकाएँ व श्राविकाएँ, ज्योतिषी देवियाँ, व्यन्तर देवियाँ, || भवनवासी देवियाँ, भवनवासी देव, व्यन्तरदेव, ज्योतिषीदेव, कल्पवासी देव, मनुष्य व तिर्यंच बैठते हैं। इसके आगे पंचम वेदी है। इसके आगे प्रथम पीठ है, जिस पर बारह कोठों व चारों वीथियों के सन्मुख सोलहसोलह सीढ़ियाँ हैं । इस पीठ पर चारों दिशाओं में सर पर धर्मचक्र रखे चार यक्षेन्द्र स्थित हैं। प्रथम पीठ के ऊपर द्वितीय पीठ होता है। जिसके चारों दिशाओं में सोपान है। इस पीठ पर सिंह, बैल आदि चिन्होंवाली ध्वजाएँ हैं व अष्टमंगल द्रव्य, नवनिधि आदि शोभित हैं। द्वितीय पीठ के ऊपर तीसरी पीठ है। जिसके चारों दिशाओं में आठ-आठ सोपान हैं। तीसरी पीठ के ऊपर एक गन्धकुटी है, जो अनेक ध्वजाओं से शोभित है। गन्धकुटी के मध्य में पादपीठ सहित सिंहासन है। जिस पर भगवान चार अंगुल के अन्तराल से आकाश में स्थित हैं। यह जो सामान्य भूमिका प्रमाण बतलाया है, वह अवसर्पिणी काल का है। उत्सर्पिणी काल में इससे विपरीत है। विदेह क्षेत्र के सम्पूर्ण तीर्थंकरों के समवसरण की भूमि बारह योजन प्रमाण ही रहती है। अवसर्पिणी काल में जिसप्रकार प्रथम तीर्थ से अन्तिम तीर्थ तक भूमि आदि के विस्तार उत्तरोत्तर कम होते गये हैं, उसीप्रकार उत्पसर्पिणी काल में वे उत्तरोत्तर बढ़ते जाते हैं। ___ भगवान की दिव्यध्वनि ओंकाररूप एकाक्षरी होती है। उसे निरक्षरी भी कहते हैं। यद्यपि दिव्यध्वनि निरक्षरी होती है, परन्तु श्रोता के कान में आते-आते श्रोताओं की भाषा में परिणमित हो जाती है। इसप्रकार सभी श्रोता अपनी-अपनी भाषा में सुनते/समझते हैं। यह भी एक अतिशय ही है। भगवान ऋषभदेव के समवसरण में २० हजार सीढ़िया थीं। और १२ योजन के विस्तार में बना था। ण प्रश्न हो सकता है कि धर्मसभा में बाग-बगीचे, नृत्यशालायें एवं नाट्यशालायें क्यों ? उत्तर - जगत में विभिन्न रुचिवाले जीव होते हैं, जिन्हें जिनेन्द्रवाणी सुनना है, वे राग-रंग के साधनों ||१० #REv 480 ERE क सर्ग
SR No.008374
Book TitleSalaka Purush Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2004
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size765 KB
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