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________________ १७४ प्रवचनसार का सार इसकारण भी वस्तुस्वरूप का मर्म हमारे ख्याल में नहीं आ पाता। हम पर्याय शब्द का भी सीमित अर्थ ग्रहण करते हैं; जबकि पर्याय शब्द का अर्थ बहुत विस्तृत है। पूर्व प्रकरण में पर्याय की चर्चा हो चुकी है। एक व्यंजनपर्याय है, जो दो द्रव्यों की मिली हुई पर्याय है। यहाँ पर्याय शब्द से 'मनुष्य पर्याय तिर्यंचपर्याय' यह अर्थ लिया जाता है और कहीं-कहीं गुण को भी पर्याय कहा जाता है। सहभावी पर्याय गुण ही तो है। शास्त्र में इस बात की विस्तार से चर्चा है कि आत्मा क्रम और अक्रम से प्रवर्तमान पर्यायों का पिण्ड है। यहाँ अक्रम का अर्थ गुण है एवं क्रम का अर्थ पर्याय है। इसप्रकार शास्त्रों में गुण के अर्थ में पर्याय शब्द का प्रयोग हुआ है। शास्त्रों में प्रदेशभेद और गुणभेद को भी पर्याय कहा है। इसका कारण यह है कि जो-जो पर्यायार्थिकनय का विषय बनता है; उन सभी की जिनवाणी में पर्याय संज्ञा है। तथा जो-जो द्रव्यार्थिकनय का विषय बनता है; उन सभी की द्रव्य संज्ञा है। गुणभेद एवं प्रदेशभेद - दोनों पर्यायार्थिकनय के विषय हैं; अत: उन्हें पर्याय कहा जाता है। अब, प्रवचनसार की ९९वीं गाथा के भावार्थ पर विचार करते हैं। भावार्थ इसप्रकार हैं - "प्रत्येक द्रव्य सदा स्वभाव में रहता है इसलिए 'सत्' है। वह स्वभाव उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप परिणाम है। जैसे द्रव्य के विस्तार का छोटे से छोटा अंश वह प्रदेश है; उसीप्रकार द्रव्य के प्रवाह का छोटे से छोटा अंश वह परिणाम है। प्रत्येक परिणाम स्व-काल में अपने रूप से उत्पन्न होता है, पूर्वरूप से नष्ट होता है और सर्व परिणामों में एकप्रवाहपना होने से प्रत्येक परिणाम उत्पाद-विनाश से रहित एकरूप-ध्रुव रहता है और उत्पादव्यय-ध्रौव्य में समयभेद नहीं है। तीनों ही एक ही समय में हैं। ऐसे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक परिणामों की परम्परा में द्रव्य स्वभाव से ही ग्यारहवाँ प्रवचन १७५ सदा रहता है; इसलिए द्रव्य स्वयं भी, मोतियों के हार की भाँति, उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक है।" ____ यहाँ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक परिणामों' - ऐसा कहकर परिणाम का स्वरूप उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है - यह स्पष्ट किया है। अभी ऐसे कई लोग हैं जो मात्र उत्पाद एवं व्यय को ही परिणाम मानते हैं तथा ध्रौव्य को उससे पृथक् करते हैं। वे कहते हैं कि ध्रौव्य तो द्रव्य है एवं उत्पाद-व्यय पर्याय हैं; इसलिए परिणाम हैं। ___परन्तु यहाँ यह स्पष्ट लिखा है कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक परिणाम अर्थात् उत्पादात्मक परिणाम, व्ययात्मक परिणाम एवं ध्रौव्यात्मक परिणाम । देखो, यहाँ उत्पाद और व्यय के साथ-साथ ध्रुवता को भी परिणाम कहा है। यहाँ यह कहा जा रहा है कि उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य यह द्रव्य का स्वभाव है; परंतु हम यह मानते हैं कि उत्पाद-व्यय पर्याय हैं एवं वे पर्याय के स्वभाव हैं, द्रव्य के स्वभाव नहीं हैं। कई लोग इसी की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि पलटना तो पर्याय का काम है। प्रवचनसार को समझने से पूर्व यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि पलटना न द्रव्य का कार्य है और न ही पर्याय का; प्रत्युत पलटना वस्तु का स्वभाव है, क्योंकि वस्तु स्वयं परिणमनशील है।। वस्तु का स्वभाव पलटकर भी नहीं पलटना है और नहीं पलटकर भी पलट जाना है। ____ यदि वस्तु पलटने रूप ही होती तो अनादि की होती ही नहीं; क्योंकि वह कभी की नष्ट हो गई होती, पलट गई होती; पर उसमें नित्यता भी है, जो अनादि से है। आचार्य कहते हैं कि नित्यत्व और अनादित्व इनका संयोग है। जो वस्तु अनादि होगी, वही नित्य होगी और जो नित्य होगी, वही अनादि होगी। 84
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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