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________________ १६४ प्रवचनसार का सार ठगाया इसलिए जा रहा है; क्योंकि जिसकी प्रशंसा हो रही है, वह तू नहीं है। किसी ने अपने पुत्र का नाम महावीर रखा । इस व्यक्ति ने अपने पुत्र का नाम महावीर इसलिए रखा; क्योंकि वह चाहता था कि कम से कम मरते वक्त तो भगवान का नाम याद आए। यह महावीर महावीर करके मरेगा तो लोग यही कहेंगे कि भगवान का नाम लेकर मरा है; लेकिन वह वस्तुतः अपने बेटे को ही याद करके मरा है। महावीर कहकर उसकी दृष्टि किसके द्रव्य-गुण-पर्याय पर है और जगत की दृष्टि कहाँ है ? ऐसे ही आचार्य कहते हैं कि जिसके बारे में प्रशंसा हो रही है. वह तू नहीं है। पर्याय की प्रशंसा में इस जीव का जो उत्साह बढ़ता है; उस उत्साह का होना ही ठगाया जाना है। किसी को ठग नहीं रहा है. वह स्वयं ही ठगाया जा रहा है। आचार्य आगे स्पष्ट कर रहे हैं कि आत्मव्यवहार तो एकमात्र अविचलित चेतना में विलास करना है। ज्ञानानंदस्वभावी जो भगवान आत्मा है, उसमें रमना ही अविचलित चेतना में रमना है। कर्मचेतना और कर्मफलचेतना - ये अज्ञान चेतना है, जो चलायमान है एवं अंतर में एक अविचलचेतना विद्यमान है, उसका ज्ञान चिविलास है; परन्तु यह क्रियाकाण्ड को छाती से लगाता है; धर्माधर्म में उलझ जाता है, धर्मपत्नी का धर्म, पति का धर्म - ऐसे न जाने कितने धर्म उत्पन्न कर लिए हैं इसने । इसमें असली धर्म का ही पता नहीं चलता। वह व्यक्ति व्यवहारकुशल है, ऐसा व्यवहार धर्म तो होना ही चाहिए - ऐसे समस्त क्रियाकलाप को यह छाती से लगाता है। आचार्य कहते हैं कि ऐसा जो मनुष्यव्यवहार है, उसका आश्रय करके यह जीव रागी-द्वेषी होते हुए परद्रव्यरूप कर्म के साथ युक्त होकर वास्तव में परसमय होता हुआ परसमयरूप ही परिणमित होता है। दसवाँ प्रवचन इससे हम यह समझ सकते हैं कि उस मनुष्यव्यवहार में एकत्वबुद्धि ही मिथ्यात्व है। 'मैं सम्यग्दर्शन हूँ, मैं केवलज्ञान हूँ।' - यह मनुष्यव्यवहार नहीं है। इस कथन से आशय मात्र इतना ही है कि यहाँ अमृतचन्द्राचार्यदेव ने स्वयं पूरा वजन असमानजातीयद्रव्यपर्याय पर ही दिया है। पण्डित टोडरमलजी ने सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका की प्रशस्ति में अपना परिचय इसी विवक्षा से दिया है - मैं आतम अरु पुद्गल खंध, मिलकर भयो परस्पर बंध । सो असमानजातिपर्याय, उपजो मानुष नाम कहाय ।। एक आत्मा और अनंत पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड है - इनका मिलकर जो संबंध हुआ है; वही असमानजातीयद्रव्यपर्याय है। शास्त्रीय भाषा में इसे असमानजातीयद्रव्यपर्याय कहा जाता है एवं जनभाषा में इसे ही मनुष्य कहा जाता है। ऐसी मनुष्यपर्याय में मैं उत्पन्न हुआ - इसप्रकार पण्डित टोडरमलजी ने स्वयं का परिचय दिया है। यहाँ रत्नों के दीपक का उदाहरण दिया है; अत: घी वगैरह से युक्त दीपक को यहाँ नहीं समझना चाहिए। रत्नों का दीपक प्रत्येक कमरे में ले गए। जहाँ-जहाँ यह रत्नदीप गया, वह कमरा प्रकाशित हो जाता है। वहाँ यदि हम कहें कि देखो, यह कमरा कितना प्रकाशित है; तो कहते हैं कि अरे भाई! प्रकाश तो रत्नदीपक का है, कमरे का अपना कोई प्रकाश नहीं है और २५ कमरों में घूमनेवाला रत्नदीपक तो एक ही है। ऐसे ही मनुष्यपर्याय, देवपर्याय, नरकपर्याय और तिर्यंचपर्याय - इन सबमें घूमनेवाला एक चैतन्यरूपी रत्नदीपक है। उसमें जो चेतना दिखती है; वह आत्मा की है। जो प्रकाश दिखाई देता है, वह रत्न का है। समझदार आदमी का ध्यान कमरों पर न होकर, प्रकाश पर होता है, रत्नों पर होता है। जिनका ध्यान रत्नों पर है; रत्नदीपक पर है; वे सम्यग्दृष्टि हैं एवं जिनका ध्यान कमरे पर है; वे मिथ्यादृष्टि हैं। 79
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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