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________________ १६३ १६२ प्रवचनसार का सार समझाने लगते हैं कि , प्रेम से रहो, घूमो-फिरो। क्या दिनभर धंधेपानी में लगे रहते हो। थोड़ा घूम-फिर आओ, सिनेमा चले जाओ।' जो सारी जिन्दगी बेटे को सिनेमा जाने से रोकते थे; वे अब उसे ही सिनेमा जाने का उपदेश दे रहे हैं। एक केशव नाम के कवि हुए हैं; उन्होंने वैराग्यशतक जैसी वैराग्य का वर्णन करनेवाली किताब लिखी है। इसमें वैराग्य का बहुत ही प्रभावोत्पादक वर्णन है। उसे पढ़कर सारे घरवाले, उसका पुत्र भी वैरागी हो गया। वह अपनी पत्नी की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखता था। तब केशव कवि की पुत्रवधू बहुत चिन्तित हुई। वह भी कवयित्री थी, विदुषी थी। उसने अपने श्वसुर को सवैया छन्द में एक पत्र लिखा। उस घर में एक बकरा और बकरी थी। बकरा कामासक्त हो रहा था, मदोन्मत्त हो रहा था। बकरे की ओर संकेत करती हुई पुत्रवधू कहती है कि रे बकरे अधिक उद्विग्न न हो; नहीं तो मैं श्वसुरजी से कहकर तुझे भी वैरागी बनवा दूंगी। पुत्रवधू का यह पत्र पढ़कर कवि केशव को सब स्थिति समझ में आ गई, तब उन्होंने शृंगाररस की कविताएँ लिखीं; जिसे पढ़कर उनका बेटा पूर्ववत् सामान्य हो गया। गुरुदेवश्री ने प्रथम विवक्षा पर वजन दिया है और मैं इस दूसरी विवक्षा पर वजन दे रहा हूँ। इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है। केवलज्ञान भी पर्याय है एवं इसमें एकत्वबुद्धि मिथ्यात्व है- यह बात बड़े-बड़े विद्वानों के ख्याल में नहीं थी। सम्यग्दर्शन भी पर्याय है, उसमें एकत्वबुद्धि मिथ्यात्व है - यह भी किसी के ख्याल में नहीं था। ध्यान दिलाने पर भी लोग इस विवक्षा को नहीं समझते थे। ____ गुरुदेवश्री के पुण्यप्रताप से अब यह अवस्था हो गई है कि सब उसी को मानने लग गए हैं एवं जो सकल अविधाओं का मूल है - ऐसी जो असमानजातीयद्रव्यपर्याय है, उस द्रव्यपर्याय में एकत्वबुद्धि को आज दसवाँ प्रवचन स्थूल बात कहने लगे हैं। स्वयं को बड़ा पण्डित माननेवाले कुछ लोग उसकी चर्चा करने में भी शर्म महसूस करते हैं; क्योंकि उनकी दृष्टि में यह स्थूल कथन है। ____क्या अमृतचन्द्राचार्य छोटे पण्डित थे? क्या प्रवचनसार स्थूल बातों का प्रतिपादन करनेवाला ग्रन्थ है ? अरे भाई ! इसी महाग्रन्थ की टीका में अमृतचन्द्राचार्य ने यह लिखा है कि 'जो जीव मनुष्यादिक असमानजातीयद्रव्यपर्यायों में एकत्वबुद्धि धारण करते हैं, वे आत्मा का अनुभव करने में नपुंसक है।' रास्ते पर एक पर्स पड़ा था, उसमें एक हजार रुपए थे। उस रास्ते पर वह अकेला ही था, कोई और नहीं था । वह चाहता तो उस एक हजार रुपए को ले जा सकता था। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और चिल्लाकर यह कहा कि यह किसका पर्स है, जिसमें एक हजार रुपये पड़े हैं; जिसका हो ले जाओ। यह सुनकर पास खड़े हुए सभी लोग उसकी प्रशंसा करने लगते हैं, तब यह गद्गद् हो जाता है। पर वह इसकी प्रशंसा कहाँ थी? यह प्रशंसा उस समय जो ईमानदारी रूप पर्याय प्रगट हुई थी, उसकी ही महिमा थी। यह आत्मद्रव्य की प्रशंसा नहीं है। यह तो उस समय के विकल्प की प्रशंसा है; जिसमें उसे उस समय पर्स देने का भाव आया और पर्स रखने का विकल्प नहीं आया। वह इसी में 'मैं चौड़ा और बाजार सकरा' हो जाता है; और अभिमान में नाचने लगता है। वह सोचता है कि देखो, मेरी कितनी प्रशंसा हो रही है। इसे ही पर्यायदृष्टि का उछलना कहते हैं अर्थात् जिस वर्तमान पर्याय में वह है, उस वर्तमान पर्याय की प्रशंसा से इसका रोम-रोम गद्गद् हो जाता है। यही पर्यायदृष्टि का उछलना है। इसप्रकार तू अहंकार द्वारा ठगाया जा रहा है। 78
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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