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________________ प्रवचनसार का सार किया है। समयसार में मात्र सामूहिकरूप से सिद्धों को नमस्कार किया है; किन्तु इस प्रवचनसार ग्रन्थ में भगवान वर्धमान के नामोल्लेखपूर्वक पाँच गाथाओं में मंगलाचरण लिखकर सभी आवश्यक पूज्य-पुरुषों का समावेश करने का प्रयास किया है। एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं । पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ।।१।। (हरिगीत) सुर असुर इन्द्र नरेन्द्र वंदित कर्ममल निर्मलकरन । वषतीर्थ के करतार श्री वर्द्धमान जिन शत-शत नमन ।।१।। यह मैं देवेन्द्रों, असुरेन्द्रों, चक्रवर्तियों से पूजित, घातिकर्मरूपी मल को धो डालनेवाले, तीर्थस्वरूप तथा धर्म के कर्ता श्री वर्धमानस्वामी को प्रणाम करता हूँ। वैसे तो २४ ही तीर्थंकर अपनी वाणी में एक ही सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं; अत: यह प्रवचनसार ग्रंथ सभी तीर्थंकरों के प्रवचनों का सार है; परंतु मूल प्रश्न यह है कि अभी शासन किसका चल रहा है? भगवान महावीर की जो दिव्यध्वनि खिरी थी, उनका जो प्रवचन हुआ था; उसकी ही अविच्छिन्न परम्परा आचार्य कुन्दकुन्द तक आई। उक्त परम्परागत ज्ञान ही इस प्रवचनसार में समाहित हुआ है; अत: यह भगवान महावीर की वाणी का ही सार है। यही कारण है कि कुन्दकुन्दाचार्य ने सर्वप्रथम भगवान महावीर को याद किया। यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जब कुन्दकुन्दाचार्य ने भगवान महावीर को नमस्कार किया, तब तो वे सिद्धावस्था में विराजमान थे और कुन्दकुन्दाचार्य धोद घाइकम्ममलं' इस विशेषण के माध्यम से यह कहते हैं कि जिन्होंने घातिया कर्मों को धो दिया है। वे यह क्यों नहीं कहते कि जिन्होंने अष्ट कर्मों को धो दिया है ? जब आचार्यदेव ने उन्हें नमस्कार किया, प्रवचनसार नामक ग्रंथ पहला प्रवचन लिखा; तब भगवान महावीर सिद्धावस्था में विराजमान थे; यह बात परमसत्य होने पर भी आचार्यदेव इस बिन्दु पर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं कि उन्होंने सिद्धदशा को प्राप्त भगवान महावीर को नमस्कार नहीं किया, वरन् अब से २५०० वर्ष पूर्व एवं कुन्दकुन्दाचार्य के समय में ५००-६०० वर्ष पूर्व जो अरहन्त अवस्था में विद्यमान थे, जिनके प्रवचन हो रहे थे, जिनकी दिव्यध्वनि खिर रही थी; उन्हीं वर्द्धमान अरिहंत भगवान को नमस्कार किया है। ऐसे प्रयोग हिन्दी साहित्य में भी पाए जाते हैं। जैसे तुलसीदासजी कहते हैं कि यद्यपि मुझे मुरली बजाते हुए श्रीकृष्ण बहुत अच्छे लगते हैं; तथापि 'तुलसी मस्तक जब नमें जब धनुष बाण लेऊ हाथ ।' मेरा माथा तुम्हारे सामने तभी झुकेगा जब तुम धनुष-बाण लेकर मेरे सामने आओगे । यह कहकर महाकवि तुलसीदासजी एक बहुत महत्त्वपूर्ण संदेश देना चाहते है। वे कहते हैं कि अभी हमें नाचने-गानेवालों की जरूरत नहीं है, इस समय तो हमें धनुष-बाण वाले भगवान चाहिए। ___महाकवि तुलसीदास के समय ऐसी विपरीत परिस्थितियाँ थी कि उस समय मुसलमानों ने देश पर आक्रमण किया था और मंदिर व मूर्तियाँ तोड़ी जा रही थीं। ऐसे समय में मुरली बजाकर नाचने-गाने की अपेक्षा धनुष-बाण लेकर अपनी सुरक्षा करना अधिक जरूरी था। इसप्रकार तुलसीदास को धनुषबाणवाले राम की जरूरत थी; जो इन म्लेच्छों से हमारी संस्कृति की रक्षा कर सकें। इसलिए तुलसीदासजी कहते हैं कि हे कृष्ण! तुम्हें नमस्कार करने में तो मुझे कोई बाधा नहीं है; लेकिन जरा कपड़े बदल कर आओ, धनुष-बाण लेकर आओ एवं मुरली को रखकर आओ। इसीप्रकार आज का मुमुक्षु समाज कहता है कि विद्वान तो तुम बहुत अच्छे हो, बातें तो हमें तुमसे ही सीखनी हैं; लेकिन नाच-गाना
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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