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________________ प्रवचनसार का सार जाता है तथा उनके इसप्रकार के उल्लेखों से कि 'तात्पर्य यह है कि......' से भी समझ सकते हैं कि वे हर गाथा का तात्पर्य या निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं; अत: उनकी टीका का नाम 'यथा नाम तथा गुण' सार्थक ही है। पञ्चास्तिकाय ग्रंथ की टीका लिखते समय वे स्वयं लिखते हैं कि हर ग्रंथ का सूत्रतात्पर्य अलग होता है और शास्त्रतात्पर्य अलग। प्रत्येक गाथा का तात्पर्य भिन्न-भिन्न होता है एवं संपूर्ण ग्रंथ का तात्पर्य उससे भी भिन्न होता है। __ गाथा का तात्पर्य गाथा की टीका में ही बता दिया जाता है और ग्रंथ के तात्पर्य को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि वीतरागता की तथा सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र की प्राप्ति होना ही सभी शास्त्रों का एक मात्र तात्पर्य है। इसतरह उन्होंने अपनी टीका का नाम 'तात्पर्यवृत्ति' रखा। उन्होंने यह अनुभव किया कि तत्त्वप्रदीपिका में जो कहा गया है; वह शत-प्रतिशत सत्य होने पर भी, नयविभाग से कहा जाने पर भी, उसमें नयों के नाम का उल्लेख नहीं किया है, जिससे बहुत से लोगों को भ्रम हो सकता है। अत: उन्होंने अपनी सभी तात्पर्यवृत्ति टीकाओं में - चाहे वह समयसार की हो या प्रवचनसार की हो अथवा पश्चास्तिकाय की हो सभी में नयों के नामोल्लेखपूर्वक मर्म खोलने की कोशिश की है। 'यह निश्चयनय का कथन है, यह व्यवहारनय का कथन है, यह उपचरितनय, यह अनुपचरित नय से है, यह सद्भूतव्यवहारनय से है, यह अशुद्धनिश्चय नय से हैं' - इसप्रकार उन्होंने नयविभाग का खुलासा किया है। __अत: नयविभाग को जानना हो तो जयसेन की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका बहुत महत्त्वपूर्ण है। वे अपनी टीकाओं को बालबोधिनी टीकायें कहते हैं। अतः उन्होंने उसमें अन्वय की विशेषता रखी है। प्रथम तो प्राकृत का शब्द लिखते हैं, तदनन्तर उसे संस्कृत में बताते हैं, फिर व्याकरण से उसकी व्युत्पत्ति बताकर सयुक्तिक उसका अर्थ सिद्ध करते हैं। इसप्रकार आचार्य जयसेन एक-एक शब्द, एक-एक वाक्य का अर्थ पहला प्रवचन बताते हैं; जबकि अमृतचन्द्राचार्य की टीकाओं में ऐसा नहीं है। अमृतचन्द्राचार्य सर्वप्रथम गाथा के भाव को पूर्णत: पूरी गहराई के साथ अपने हृदय में समाहित कर लेते हैं; फिर अंतरतम की गहराई के साथ उसे विशुद्ध तर्कसंगत शैली में, उत्कृष्टतम भाषा के प्रयोगों के साथ, लम्बे-लम्बे वाक्यों के द्वारा अपनी बात को श्रोताओं के सामने रखते हैं। उनकी इस शैली से ऐसा लगता है कि उनके जो श्रोता हैं; वे प्रबुद्ध हैं, उन्हें नयविभाग बताने की आवश्यकता नहीं है। वे श्रोता स्वयमेव ही नयविभाग को समझ लेते हैं, व्याकरण को समझ लेते हैं। ____ अमृतचन्द्राचार्य उन्हें शब्द की व्युत्पत्ति, व्याकरण बताना आवश्यक नहीं समझते; क्योंकि अमृतचन्द्राचार्य मानते हैं कि जिनवाणी की व्याख्या के मध्य भाषा पढ़ाने लगना, मध्य-मध्य में न्याय पढ़ाने लगना उचित नहीं है - इससे जो मुख्य विषयवस्तु का प्रतिपादन है, उसमें बाधा उत्पन्न होती है। ___यदि हम सम्यग्दर्शन की विषयवस्तु पर मंथन कर रहे हों और बीच में ही सम्यग्दर्शन शब्द का पूरा व्याकरण समझाने लगे कि इसमें यह संधि है, यह समास है, यह प्रत्यय है' तो मूल विषय छूट जायेगा। यदि न्याय-व्याकरण के विस्तार में जायेंगे तो सम्यग्दर्शन की विशुद्ध विषयवस्तु एक तरफ रह जाएगी और न्याय-व्याकरण आरंभ हो जाएगें। ये टीकाएँ परस्पर प्रतिद्वन्द्वी टीकाएँ नहीं, अपितु परस्पर पूरक टीकाएँ हैं। यदि हमें प्रवचनसार को गहराई से समझना है तो अमृतचन्द्राचार्य की तत्त्वप्रदीपिका नामक टीका को पढ़ना होगा एवं सरलता से सब बात समझ में आ जावे - इसके लिए तात्पर्यवृत्ति टीका को गहराई से पढ़ना होगा। अत: दोनों टीकाओं के सहारे ही प्रवचनसार की संपूर्ण विषयवस्तु समझना समझदारी का काम है। मंगलाचरण के संदर्भ में विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने अन्य ग्रन्थों में मात्र एक-एक गाथा में ही मंगलाचरण
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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