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________________ नौवाँ प्रवचन अबतक प्रवचनसार परमागम के ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार पर चर्चा चली; अब ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार आरंभ करते हैं। इस अधिकार को आचार्य जयसेन ने सम्यग्दर्शन अधिकार नाम दिया है। ___ आत्मा के कल्याण के लिए जगत में जो जाननेयोग्य पदार्थ हैं; उन सभी पदार्थों का वर्णन इस ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार में होगा। पहले सभी द्रव्यों की सामान्य चर्चा करेंगे। उसके बाद प्रत्येक द्रव्य की अलग-अलग विशेष चर्चा करेंगे। तत्पश्चात् ज्ञान और ज्ञेयों की भिन्नता का स्वरूप स्पष्ट करेंगे। इसप्रकार यह ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार तीन अधिकारों में विभक्त है; जो इसप्रकार हैं १. द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार, २. द्रव्यविशेषप्रज्ञापन अधिकार और ३. ज्ञान-ज्ञेयविभागाधिकार। ___ द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार प्रवचनसार का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंश है; क्योंकि इसमें प्रतिपादित वस्तुस्वरूप जबतक हमारे ख्याल में नहीं आएगा, तबतक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हो सकती। सम्यग्दर्शन का विषयभूत जो भगवान आत्मा है और जिसकी चर्चा समयसार में की जाती है। वह भगवान आत्मा इस प्रवचनसार के द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन की पृष्ठभूमि पर ही समझा जा सकता है। अतः द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार में जो वस्तु की द्रव्य-गुणपर्यायात्मक व्यवस्था बताई गई है; सर्वप्रथम उसकी चर्चा करते हैं - अत्थो खलु दव्वमओदव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि। तेहिं पुणो पजाया पजयमूढा हि परसमया ।।१३।। जो पज्जएसु णिरदा जीवा परसमग त्ति णिहिट्ठा। आदसहावम्हि णिदा ते सगसमया मुणेदव्वा ।।१४।। नौवाँ प्रवचन (हरिगीतिका ) गुणात्मक हैं द्रव्य एवं अर्थ हैं सब द्रव्यमय । गण-द्रव्य से पर्यायें पर्ययमढ ही हैं परसमय ।।१३।। पर्याय में ही लीन जिय परसमय आत्मस्वभाव में। थित जीव ही हैं स्वसमय - यह कहा जिनवरदेव ने ।।१४।। पदार्थ द्रव्यस्वरूप है, द्रव्य गुणात्मक कहे गये हैं और द्रव्य तथा गुणों से पर्याये होती हैं। पर्यायमूढ जीव परसमय (अर्थात् मिथ्यादृष्टि) हैं। जो जीव पर्यायों में लीन हैं, उन्हें परसमय कहा गया है; जो जीव आत्मस्वभाव में स्थित हैं; वे स्वसमय जानने। जो मात्र पर्यायों को ही जानते हैं, उनको ही सम्पूर्ण तत्त्व समझ लेते हैं; वे जीव अज्ञानी, परसमय और मिथ्यादृष्टि हैं। जो सम्यग्दृष्टि हैं, जो मुक्ति के मार्ग में लगे हुए हैं, जिन्होंने सच्चा सुख प्राप्त करने का उपाय प्राप्त कर लिया है; ऐसे चतुर्थ गुणस्थानवर्ती से आगे के सभी जीव स्वसमय कहलाते हैं। जो द्रव्यों को नहीं जानते हैं, गुणों को नहीं जानते हैं और मात्र पर्यायों को जानकर उसमें ही अपनापन स्थापित कर लेते हैं, वे अज्ञानी हैं, मिथ्यादृष्टि हैं। वे पर्यायमूढ हैं; क्योंकि वे पर्यायों में एकत्वबुद्धि धारण करनेवाले हैं। आगे आचार्य द्रव्य-गुण-पर्याय का विश्लेषण करते हैं। महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र में कहा है कि - 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' अर्थात् द्रव्य गुणपर्यायात्मक है। 'सद्रव्यलक्षणम्' अर्थात् सत् द्रव्य का लक्षण है और 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्' अर्थात् सत् उत्पादव्यय-ध्रौव्य युक्त होता है। तत्त्वार्थसूत्र के उक्त कथनों की अपेक्षा प्रवचनसार के इस द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार में प्रतिपादित विषयवस्तु की विशेषता यह है कि तत्त्वार्थसूत्र में गुण-पर्याय के समुदाय को द्रव्य कहा है, जबकि यहाँ द्रव्य-गुण-पर्याय के समुदाय को अर्थ कहा गया है। 70
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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