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________________ १४४ प्रवचनसार का सार के ग्रन्थ में इसका नाम है; इसलिए इसके नाम को भी लोग घर में सम्हालकर रखते हैं। इसप्रकार नाम भी कमाना है तो भी शास्त्र में ही अपनी राशि को लगाना लाभदायक है। ___पंचकल्याणक में इन्द्र बनने के लिए पाँच-पाँच लाख रुपए खर्च करते हो। वहाँ तो मात्र एक बार आपके लिए एक वाक्य बोलने को दिया जाता है; पर इतने खर्चे में तो सम्पूर्ण हिन्दुस्तान के मंदिरों में समयसार पहुँच सकता है, सारे मंदिरों में प्रवचनसार पहुँच सकता है। ___ मैं यहाँ ऐसा नहीं कह रहा हूँ, वहाँ पैसे खर्च नहीं करना । मैं तो मात्र तुलना कर रहा हूँ। वहाँ भी खर्च करना और यहाँ भी खर्चा करना; परंतु तुलना करना भी सीखना । इसपर गम्भीरता से विचार करना जरूरी है कि क्या जिनवाणी को घर-घर पहुँचाने का काम वस्तुत: श्रेष्ठतम नहीं है? __आचार्यदेव ने स्वयं ही शुभभावों का बड़ी निदर्यता से निषेध किया है; परन्तु शास्त्रस्वाध्याय को उपायान्तर के रूप में स्थापित किया है। स्वयं स्वाध्याय करो एवं दूसरे को भी स्वाध्याय करवाओ। घर में बैठकर यदि पाँच व्यक्ति मिलकर तत्त्वाभ्यास करते हैं तो वह महान कार्य है; उससे अपना घर पवित्र होता है। जिसप्रकार घर में थोड़ी-सी बदबू आती हो तो हम अगरबत्ती जला देते हैं। यदि घर में स्वाध्याय या तत्त्वचर्चा शुरू होती है तो घर में जो दुर्भावों की दुर्गन्ध है, वह साफ हो जाती है। १० मिनट पूर्व जो टी.वी. की गंदगी घर में फैली थी; घर में तत्त्वचर्चा शुरू करेंगे तो वह स्वयमेव ही निकल जाएगी, पर्यावरण की शुद्धि हो जाएगी। स्वाध्याय घर-घर को शुद्ध करेगा, मंदिर को शुद्ध करेगा अर्थात् पर्यावरण को शुद्ध करेगा। पूजा अपने विचार भगवान के सम्मुख प्रगट करना है; किन्तु स्वाध्याय भगवान की बात सुनना है। आप ही विचारिए कि अपनी बात भगवान को सुनाना अधिक महत्त्वपूर्ण है या भगवान की बात आठवाँ प्रवचन १४५ सुनना अधिक महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः अपनी बात भगवान को कहने की जरूरत ही नहीं है; क्योंकि लिखा है कि - तुमको बिन जाने जो कलेश, पाए सो तुम जानत जिनेश । हे भगवन्! आपको जाने बिना मैंने जो क्लेश उठाए हैं, उन्हें आप भलीभाँति जानते हैं; क्योंकि आपको केवलज्ञान है। ___ हम नहीं कहेंगे तो भी वे हमारी दशा जानते हैं; पर आप उन्हें बताओ तो भी उन्हें कोई ऐतराज नहीं है। भगवान से यदि पूछे कि हे भगवन्! इन दुःखों से छूटने का क्या उपाय है; तब वे भी वही उपाय बताएँगे जो आचार्यदेव ने यहाँ बताया है। आजतक जितने जीव इस दुःख से छूटे हैं, वे इसी उपाय से छूटे हैं, आज भी छूट रहे हैं और जो भविष्य में छूटेंगे वे भी इसी उपाय से छूटेंगे। आचार्यदेव कहते हैं कि जो शास्त्र में लिखा है; वह सब भगवान की ही बातें हैं। सभी शास्त्र जिनोपदिष्ट ही है। अत: स्वाध्याय करना उपायान्तर है। असली उपाय प्राप्त करने का यह उपाय है। यह मोहमुक्ति का मार्ग सभी तीर्थंकरों ने गणधरदेवों की उपस्थिति में, सौ इन्द्रों की उपस्थिति में, सन्तों की उपस्थिति में बताया है। अतः इसमें किसी भी प्रकार की शंका-आशंका करना उचित नहीं है। __ शंका-आशंका करने से हाथ तो कुछ आनेवाला नहीं है; किन्तु इस मार्ग के लाभ से हम अवश्य वंचित हो जावेंगे ।अतः सर्व संकल्पविकल्पों से विराम लेकर शास्त्रस्वाध्याय के माध्यम से द्रव्य-गुणपर्यायों का जानने का प्रयास करना चाहिए, समस्त लोक में से निज भगवान आत्मा को पहिचान कर उसी में जम जाना, रम जाना चाहिए। एकमात्र यही मार्ग है। अत: सभी लोग जिनवाणी के स्वाध्याय करने का संकल्प लें - इस मंगल भावना से विराम लेता हूँ। 69
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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