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________________ १४० प्रवचनसार का सार सभी द्रव्य सत् हैं - ऐसी जो महासत्ता है, वही सादृश्यास्तित्व है। इसमें भेदज्ञान नहीं हो पाता है। सादृश्यास्तित्व में से ही स्वरूपास्तित्त्व प्रगट होता है। ‘मैं ज्ञानानन्दस्वभावी हूँ' - यह मेरा स्वरूपास्तित्त्व है और 'आप ज्ञानानन्दस्वभावी हैं'- यह आपका स्वरूपास्तित्व है । लेकिन मेरा अस्तित्व मेरे में है, पर से उसका कोई संबंध नहीं । जिसे इस स्वरूपास्तित्व का पता नहीं है, वह कितने ही शास्त्र पढ़े, मुनिपना धारण करें, उसका जीवन व्यर्थ ही है। जिसप्रकार सर्राफा बाजार में दुकानों के पास नालियाँ होती हैं तो बहुत सारे स्वर्णकण उन नालियों में, धूल में गिर जाते थे और धूलधा लोग नाली में से कीचड़, धूल-मिट्टी इकट्ठा करके कीचड़ एवं धूल को धो-धोकर उसमें से स्वर्णकण निकालते हैं। उस नाली में, धूल में इतने स्वर्णकण गिर जाते हैं कि उससे ही उन धूलधोया लोगों की आजीविका चलती है। आचार्य कहते हैं कि जो धूलधोया का धंधा करे और उसे यदि स्वर्णकण कौन-सा है, मिट्टी कौन-सी है एवं कंकड़ पत्थर कौन-से हैं ? इसका ज्ञान नहीं हो तो उसे स्वर्णकण कैसे मिलेंगे ? उसकी निगाह में वे स्वर्णकण आयेंगे; लेकिन उन्हें वह पहचान नहीं पाएगा। ऐसे लोग स्वर्णकणों की प्राप्ति के अभाव में भूखें ही मरेंगे । उसीप्रकार भरपूर स्वाध्याय करके भी, जिसने स्व-पर का भेदविज्ञान नहीं किया है, उनका जीवन धूलधोये की भाँति ही निष्फल जाएगा। इस कथन का आशय यह है कि आगम से द्रव्य-गुण-पर्याय का स्वरूप जानकर उसमें से स्वत्व निकालना आना चाहिए । अब आचार्य इन पंक्तियों के आधार से इस अधिकार का समापन करते हैं - " उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणं संपत्ती - इसप्रकार पाँचवी गाथा में प्रतिज्ञा करके, चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति णिदिट्ठो 67 आठवाँ प्रवचन १४१ - इसप्रकार ७वीं गाथा में साम्य ही धर्म है ऐसा निश्चित करके, परिणमदि जेण दव्वं तत्कालं तम्मयं ति पण्णत्तं । तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेदव्वो ।। - इसप्रकार ८वीं गाथा में जो आत्मा का धर्मत्व कहना आरंभ किया और जिसकी सिद्धि के लिए - धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्दसंपओग जुदो । पावदि णिव्वाणसुहं.... || - इसप्रकार११वीं गाथा में निर्वाणसुख के साधनभूत शुद्धोपयोग का अधिकार आरंभ किया, विरोधी शुभाशुभ उपयोग को हेय बताया, शुद्धोपयोग का वर्णन किया, शुद्धोपयोग के प्रसाद से उत्पन्न होनेवाले आत्मा के सहज ज्ञान और आनन्द को समझाते हुए ज्ञान और सुख के स्वरूप का विस्तार किया; अब किसी भी प्रकार शुद्धोपयोग के प्रसाद से उस आत्मा के धर्मत्व को सिद्ध करके परमनिस्पृह, आत्मतृप्त ऐसी पारमेश्वरी प्रवृत्ति को प्राप्त होते हुए, कृतकृत्यता को प्राप्त करके अत्यन्त अनाकुल होकर, भेदवासना की प्रगटता का प्रलय करते हुए 'मैं स्वयं साक्षात् धर्म ही हूँ' - इसप्रकार रहते हैं। " टीका की इन पंक्तियों में ९२ गाथाओं में वर्णित समस्त विषय को समेट लिया है। प्रथम उन्होंने शुद्धोपयोग की चर्चा की, उसके फल में प्राप्त होनेवाली अतीन्द्रिय ज्ञान व अतीन्द्रिय सुख का प्रकरण आया; इसके पश्चात् शुभपरिणामाधिकार की चर्चा की; जिसमें वास्तविक मोक्ष का मार्ग बताया कि जो अरहंत को द्रव्य-गुण-पर्याय से जानता है, वह आत्मा को जानता है एवं उसका मोह नाश को प्राप्त होता है। फिर उपायान्तर की चर्चा की एवं उसमें यह प्रेरणा दी कि शास्त्रों का स्वाध्याय करो । शुद्धोपयोग तो मुक्ति प्राप्त करने का उपाय है एवं शास्त्र-स्वाध्यायवाला शुभभाव उस मार्ग का सहयोगी है, उपायान्तर है। वह इसका प्रतिद्वंद्वी
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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