SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ अपितु उसका सहयोगी उपाय है। उपाय यह है कि द्रव्य-गुण- पर्याय से अरहंत को जानना और उपायान्तर यह है कि इन द्रव्य-गुण-पर्यायों को विविध शास्त्रों के स्वाध्याय से जानना चाहिए; क्योंकि एक ही जगह सभी विषय विस्तार से नहीं कहे जा सकते। आचार्यदेव ने हमें उपाय बता दिया है; अब हमें उस उपाय को जानना है तो शास्त्रों का स्वाध्याय करके जानना चाहिए। प्रवचनसार का सार यदि कोई तुम्हें समझाता है; पर उसमें सही अर्थ भासित न होकर अनर्थ भासित होता है तो शास्त्र तुम्हारे पास साक्षी हैं; किसी और से पूछने की आवश्यकता ही नही है। इसप्रकार यहाँ आचार्यदेव ने उसी उपाय के सहयोगी उपाय को उपायान्तर कहा है - णाणप्पगमप्पाणं परं च दव्वत्तणाहिसंबद्धं । जाणदि जदि णिच्छयदो जो सो मोहक्खयं कुणदि ।। ८९ ।। ( हरिगीत ) जो जानता ज्ञानात्मक निजरूप अर परद्रव्य को । वह नियम से ही क्षय करे दृगमोह एवं क्षोभ को ।। ८९ ।। जो निश्चय से ज्ञानात्मक ऐसे अपने को और पर को निज-निज द्रव्यत्व से संबद्ध जानता है, वह मोह का क्षय करता है। ८६वीं गाथा में आचार्यदेव ने ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार की भूमिका बाँधी थी और अब यहाँ ज्ञेय - ज्ञानविभागाधिकार की भूमिका बाँध रहे हैं। ऐसा कह रहे हैं कि शास्त्रों से द्रव्य-गुण-पर्याय को जानकर 'ज्ञानस्वभावी आत्मा मैं हूँ और अन्य सम्पूर्ण जगतरूप अन्य द्रव्य मैं नहीं हूँ' • ऐसा जानना ही मोह के क्षय का उपाय है। आचार्य ने द्रव्य-गुणपर्याय को जानकर उसमें स्व-पर भेदविभाग करने का आदेश दिया है। इसप्रकार जानने का लाभ यह है कि जो मैं हूँ, उसमें जम जाना है। - अब सब प्रकार से स्व-पर के विवेक की सिद्धि आगम से करने 66 आठवाँ प्रवचन योग्य है - ऐसा उपसंहार करते हैं - १३९ तम्हा जिणमग्गादो गुणेहिं आदं परं च दव्वेसु । अभिगच्छदु णिम्मोहं इच्छदि जदि अप्पणो अप्पा ।। ९० ।। ( हरिगीत ) निर्मोह होना चाहते तो गुणों की पहिचान से । तुम भेद जानो स्व-पर में जिनमार्ग के आधार से ।। ९० ।। यदि आत्मा अपनी निर्मोहता चाहता हो तो जिनमार्ग से गुणों के द्वारा द्रव्यों में स्व और पर को जानो । तात्पर्य यह है कि स्व-पर के विवेक से मोह का नाश किया जा सकता है; इसलिए जिनागम के द्वारा विशेष गुणों से ऐसा विवेक करो कि अनन्त द्रव्यों में से यह स्व है और यह पर है। इस गाथा में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जिन शास्त्रों के स्वाध्याय से द्रव्य-गुण-पर्याय को जानकर गुणों के आधार पर स्व और पर का विभाग किया जा सके, स्व और पर का विभाग करके पर से अपनापन तोड़कर स्व में अपनापन जोड़ा जा सके; उन्हीं शास्त्रों का स्वाध्याय अभीष्ट है; क्योंकि मोहक्षय का यही उपाय है; अन्य बातों में उलझना ठीक नहीं है। ९१वीं गाथा की यह टीका महत्त्वपूर्ण है - “सादृश्यास्तित्व से समानता को धारण करते हुए भी स्वरूपास्तित्व से विशेषता से युक्त द्रव्यों को स्व-पर के भेदविज्ञानपूर्वक न जानता हुआ, न श्रद्धा करता हुआ जो जीव मात्र श्रमणता (द्रव्यमुनित्व) से आत्मा का दमन करता है; वह वास्तव में श्रमण नहीं है। जिसे रेत और स्वर्णकणों का अन्तर ज्ञात नहीं है, उस धूल को धोनेवाले पुरुष को जिसप्रकार स्वर्णलाभ नहीं होता; उसीप्रकार उक्त श्रमणाभासों में से निरुपराग आत्मतत्त्व की उपलब्धि लक्षणवाले धर्म का उद्भव नहीं होता, धर्मलाभ प्राप्त नहीं होता। "
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy