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________________ प्रवचनसारका सार १३२ लडने के लिए आता था। जब वह लड़ने के लिए आता था, तब वह उस गड्डे में गिर जाता था। द्वितीय उदाहरण में हथिनी राग में फँसाकर हाथी को गड्डे में गिराती है और इस उदाहरण में द्वेष में फँसाकर हाथी को गड्डे में गिराया जाता है। 'घास के ढेर से ढके हुए खड्डे को प्राप्त होनेवाले हाथी की भाँति' - यह मोह (अज्ञान) संबंधी उदाहरण है। हथिनीरूपी कुट्टनी के शरीर में आसक्त हाथी की भाँति' - यह राग संबंधी उदाहरण है और 'विरोधी हाथी को देखकर, उत्तेजित होकर (उसकी ओर) दौड़ते हुए हाथी की भाँति' - द्वेष संबंधी उदाहरण है। यहाँ तीन बातें महत्त्वपूर्ण हैं - धोखा खाकर मोह में पड़े और अपनापन स्थापित कर लें अथवा राग करे अथवा द्वेष करे; परन्तु ये तीनों चीजे फँसाती ही हैं। अरे ! आप भी खण्डेलवाल और मैं भी खण्डेलवाल । आप भी छाबड़ा मैं भी छाबड़ा - इसप्रकार अपनेपन में फँसाना, यह मोह का ही उदाहरण है। किसीप्रकार अपनापन स्थापित करना - यह प्रत्येक की वृत्ति है। यदि परदेश में उसे कोई जापानी मिलता है और उससे इसकी कोई रिश्तेदारी नहीं है। वह किसी भी रूप में उससे जुड़ा हुआ नहीं है। फिर भी जापान एशिया में है, इसलिए हम भी एशियन और तुम भी एशियन - इसप्रकार उसमें कहीं न कहीं से अपनत्व स्थापित करता है। यह अपनापन जोड़ने की वृत्ति ही मिथ्यात्व है। अपनापन जोड़ना फँसने और फँसाने की वृत्ति है। इसीप्रकार जहाँ भी थोड़ा-सा संयोग मिलता हुआ दिखता है, वहाँ यह तुरंत अपनापन जोड़ लेता है। आप भी मुमुक्षु, मैं भी मुमुक्षु , आप दिगम्बर, मैं भी दिगम्बर - इसप्रकार सम्प्रदाय से अपनत्व जोड़ता है। आप जैनी, मैं भी जैनी - इसप्रकार जाति से, गोत्र से - ऐसे विविधप्रकार से यह अपनत्व जोड़ने का प्रयत्न करता है। आठवाँ प्रवचन १३३ जिससे समानता दिखें और जहाँ एकता उत्पन्न हो, राग का कारण दिखे, वहाँ तुरंत राग उत्पन्न होता है। उस राग का कारण एकत्व व मोह ही है। ___यह स्वयं अमरीकन है और दूसरा एशियन है, उसमें कोई अपनत्व का बिन्दु भी नहीं है, फिर वह अच्छा आदमी है - इसप्रकार उसकी अच्छाइयाँ बताकर उसमें राग पैदा करता है। यदि उस व्यक्ति को पछाड़ना है, तब उसके विरोधी का साथ देना ही पड़ेगा। इस उद्देश्य से जैसे पाकिस्तान विरोधी है, पर चाइना से निपटना है; तब विरोधी का विरोधी दोस्त हो जाता है - ऐसे सिद्धान्त निकालकर उससे मोह, राग व द्वेष - इन तीनों को पुष्ट करता है। सम्पूर्ण जगत मोह, राग और द्वेष - इन तीनों में ही फँसता-फँसाता आ रहा है। ___ मोह, राग और द्वेष इन तीनों का उदाहरण देकर आचार्यदेव यह कहना चाहते हैं कि ये तीनों अनिष्ट कार्य करनेवाले हैं; इसलिए मोह, राग व द्वेष - इन तीनों का यथावत् निर्मूल नाश हो; हमें ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। ८१वीं गाथा तक आचार्य ने मोह, राग और द्वेष के नाश का उपाय बताया। ८२वीं गाथा में यह प्रेरणा दी कि करनेयोग्य कार्य मात्र यही है; अब और अधिक खोजा-खोजी के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए । खोजने का कार्य सिद्ध हो गया है। अब मात्र पुरुषार्थ प्रारम्भ करना शेष है। और जरा देख लें, और जरा देख लें - ऐसा अतृप्ति का भाव शेष रहना ही नहीं चाहिए । अब निर्णय हो गया है और समय अल्प है; अतः पुरुषार्थ प्रारम्भ करो। दुकान पर जाते हैं, सब निर्णय हो जाते हैं; तब ऐसा ही कहा जाता है कि अब खरीदो और भागो। कपड़ा खरीद लिया है, दर्जी के यहाँ कपड़ा सिलने डाल दिया है। दर्जी ने उसे काट दिया है। इतना सबकुछ होने पर भी यदि वह कहता है कि कहीं अपन ठगाए तो नहीं गए? थोड़ा दो दुकानें और देख लें। ऐसे मूर्यों के लिए हम यही समझाते हैं कि अब 63
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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