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________________ १३० प्रवचनसार का सार इस कथन का आशय मात्र इतना ही है कि समझ में आने का लक्षण एकमात्र तृप्ति है। इस जीव को और अधिक सुनने का, अन्यत्र जाने का, दुनिया में भटकने का जो विकल्प है; वह अतृप्ति का ही सूचक है। एकमात्र यही रास्ता है, अनन्ते जीव इसी रास्ते से मोक्ष गए हैं। अभी वर्तमान में जो जीव मोक्ष जा रहे हैं, छ: माह आठ समय में ६०८ जीव मोक्ष जाएँगे; वे किसी अन्य उपाय से मोक्ष में जाएँगे; यह संभव ही नहीं है। देशनालब्धि के माध्यम से तत्त्व को समझकर, फिर प्रायोग्यलब्धि में होते हुए करणलब्धिपूर्वक आत्मानुभव करके, आत्मा में लीन होकर, चारित्र धारण करके ही यह जीव मोक्ष जाता है - यही मार्ग है, अन्य कोई मार्ग नहीं है। दब्बादिएसु मूढो, भावो जीवस्स हवदि मोहो त्ति । खुब्भदि तेणुच्छण्णो, पप्पा रागं व दोसं वा।।८३।। (हरिगीत) द्रव्यादि में जो मूढ़ता वह मोह उसके जोर से। कर रागरुष परद्रव्य में जिय क्षुब्ध हो चहुंओर से ।।८३।। जीव के द्रव्यादि सम्बन्धी मूढ भाव (द्रव्यगुणपर्याय संबंधी जो मूढतारूप परिणाम) वह मोह है, उससे आच्छादित वर्तता हुआ जीव राग अथवा द्वेष को प्राप्त करके क्षुब्ध होता है। ८३ और ८४वीं गाथा की टीका में अमृतचन्द्राचार्य ने इसे उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट किया है - "धतूरा खाये हुए मनुष्य की भाँति द्रव्य-गुण-पर्याय संबंधी पूर्ववर्णित तत्त्व-अप्रतिपत्तिलक्षण जो जीव का मूढभाव है, वह मोह है। आत्मा का स्वरूप उक्त मोह (मिथ्यात्व) से आच्छादित होने से यह आत्मा परद्रव्य को स्वद्रव्यरूप से, परगुण को स्वगुणरूप से और परपर्यायों को स्वपर्यायरूप से समझकर-स्वीकार कर अतिरूढ़ दृढ़तर संस्कार के आठवाँ प्रवचन कारण परद्रव्य को ही सदा ग्रहण करता हुआ, दग्धइन्द्रियों की रुचि के वश से अद्वैत में भी द्वैत प्रवृत्ति करता हुआ, रुचिकर-अरुचिकर विषयों में राग-द्वेष करके अति प्रचुर जलसमूह के वेग से प्रहार को प्राप्त पुल की भाँति दो भागों में खण्डित होता हुआ अत्यन्त क्षोभ को प्राप्त होता है। इसप्रकार मोह, राग और द्वेष - इन भेदों के कारण मोह तीन प्रकार का है। इसप्रकार तत्त्व-अप्रतिपत्तिरूप वस्तुस्वरूपके अज्ञान के कारण मोहराग-द्वेषरूप परिणमित होते हुए इस जीव को - घास के ढेर से ढंके हुए गड्डे को प्राप्त होनेवाले हाथी की भाँति, हथिनीरूप कुट्टनी के शरीर में आसक्त हाथी की भाँति और विरोधी हाथी को देखकर उत्तेजित होकर उसकी ओर दौड़ते हुए हाथी की भाँति - विविधप्रकार का बंध होता है; इसलिए मुमुक्षुजीव को अनिष्ट कार्य करनेवाले इस मोह, राग और द्वेष का यथावत् निर्मूल नाश हो - इसप्रकार क्षय करना चाहिए।" आचार्य ने यहाँ हाथी के तीन उदाहरण देकर मोह, राग और द्वेष को स्पष्ट किया है। इन उदाहरणों के अध्ययन से ऐसा लगता है कि आचार्य भयंकर जंगल में रहते थे। जहाँ हाथियों के झुण्ड घूमा करते थे - ऐसे गहन वन में रहते थे। प्रथम उदाहरण में, पहले एक गड्डा बना दिया जाता था और उसके ऊपर घास डाल दिया जाता था। उस गड़े के उदाहरण से आचार्य ने मोह को समझाया है। दूसरे उदाहरण में, हथिनी को ऐसा प्रशिक्षित किया जाता था कि वह हाथी को फँसाकर उसे अपने पीछे दौड़ाती थी। इसप्रकार के हाथी के माध्यम से यहाँ राग को समझाया है। तीसरे उदाहरण में, हाथी को ऐसा प्रशिक्षित किया जाता था कि वह सामनेवाले हाथी को ललकारता था। तब वह दूसरा हाथी उससे 62
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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