SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सातवाँ प्रवचन १२५ १२४ प्रवचनसार का सार जिसप्रकार डोरा व मोती निकाल दो और मात्र हार रखो - ऐसी भाषा का प्रयोग कभी नहीं होता; उसीप्रकार गुण निकालो, पर्याय निकालो और मात्र द्रव्य को रखो - ऐसी दृष्टि द्रव्यदृष्टि नहीं है। यहाँ, आचार्यदेव ने परिणाम, परिणामी और परिणति की चर्चा की है। इसमें कहा है कि परिणाम के भेद का विकल्प नष्ट होता जाता है अर्थात् भेद का विकल्प नष्ट होता है, भेद नहीं।। प्रत्येक आत्मा में अनंत गुण हैं और प्रतिसमय एक गुण की एक पर्याय होती है - हममें और अरहंत भगवान में पर्याय संबंधी यह समानता है। जैसे - चाहे चपरासी हो, चाहे जिलाधिकारी हो - दोनों ही सरकारी नौकर हैं; जो उनमें भेद है, उसे मुख्य नहीं करना है। ऐसे ही अरहंत और हमारा आत्मा परिणमनशील है; इसप्रकार दोनों में परिणमनशीलता समान है - इसप्रकार दोनों की पर्याय में समानता है। पर्याय का जो भेद है; वह व्यक्तिगत स्तर पर है; उसे यहाँ नहीं देखना है। हम जैनी और तुम जैनी - इसप्रकार दोनों की एक ही जाति है। प्रवचन सुनने के लिए जो श्रोता आए हैं; उनमें कोई चपरासी भी हो सकता है और मन्त्री भी हो सकता है; पर जैन तो दोनों ही हैं। दोनों को यदि प्रवचन सुनना हो तो सबके साथ नीचे ही बैठना होगा। ___एक बार आदर्शनगर में एक निवृत्त (रिटायर्ड) कलेक्टर साहब मेरा प्रवचन सुनने आए थे। वे प्रवचन के मध्य में बहस करने लग गए तो मैंने उन्हें रोक दिया। तो उन्होंने कहा 'जानते हो - मैं कौन हूँ ? आखिर आप मुझे समझते क्या हैं ?' मैंने कहा ‘आप एक श्रोता हो। मैं तो बस यही जानता हूँ।' उन्होंने झट से कहा कि 'मैं कलेक्टर हूँ।' मैंने कहा 'आप कलेक्टर होंगे; लेकिन इस समय मेरे लिए तो आप श्रोता ही हैं।' इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं; लेकिन वे भी अपने पति फिरोज गांधी के लिए तो पत्नी ही थीं। किसी का पति प्रधानमंत्री हो; लेकिन उसकी पत्नी के लिए तो वह पति ही है। जब इसप्रकार परिणाम, परिणामी व परिणति के भेद का विकल्प नष्ट हो जाता है; तब यह जीव निष्क्रिय चिन्मात्र भाव को प्राप्त होता जाता है। उससे इसका दर्शनमोह निराश्रय होता हुआ नष्ट होता जाता है। __इसके पश्चात् आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा है तो मैंने मोह की सेना पर विजय प्राप्त करने का उपाय प्राप्त कर लिया है। अरहंत भगवान को द्रव्य-गुण-पर्याय से जानो तो अपने आत्मा का जानना होगा और स्वयमेव ही मोह का नाश होगा। अब ८१ वीं गाथा की उत्थानिका में लिखते हैं कि - "अथैवं प्राप्तचिन्तामणेरपि मे प्रमादो दस्युरिति जागर्ति । - अब, इसप्रकार मैंने चिन्तामणि रत्न प्राप्त कर लिया है; तथापि प्रमाद चोर विद्यमान है - ऐसा विचार कर जागृत रहता है।" मोक्ष के उपायरूप चिन्तामणिरत्न मिल गया है; लेकिन प्रमादरूप चोर चारों तरफ घूम रहे हैं; इसलिए मुझे जागना चाहिए। पण्डित भूधरदासजी ने इसे पद्यरूप में इसप्रकार स्पष्ट किया है - मोहनींद के जोर, जगवासी घूमें सदा। कर्मचोर चहूँ ओर, सरवस लूटें सुध नहीं।। पण्डित भूधरदासजी ने कर्मों को चोर बताया है और यहाँ आचार्यदेव प्रमाद को चोर कह रहे हैं। __ आचार्य ने पहले यह कहा था कि 'उठो, जागो!' अब आचार्य 'जागते रहो।' ऐसा कह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि जो तुमने प्राप्त कर लिया है, वह अनंतकाल तक टिकेगा नहीं; क्योंकि अभी इसे क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ है; इसलिए हे जीव ! जागते रहो। गाथा मूलत: इसप्रकार है - जीवो ववगदमोहो, उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्मं । जहदि जदि रागदोसे, सो अप्पाणं लहदि सुद्धं ।।८१।। 59
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy