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________________ प्रवचनसार का सार १२२ इस विधि को अमृतचन्द्राचार्य ने टीका की इन दो पंक्तियों में और गंभीरता प्रदान की है - 'जो वास्तव में अरहंत को द्रव्यरूप से, गुणरूप से और पर्यायरूप से जानता है, वह वास्तव में अपने आत्मा को जानता है; क्योंकि दोनों में निश्चय से अंतर नहीं है।' इन पंक्तियों पर मुमुक्षुओं में बहुत चर्चा चलती है। अरहंत को द्रव्य-गुण-पर्याय से जानने में दो दृष्टियाँ मुख्य हैं। प्रथम यदि हम पर्याय का विचार करें तो अरहंत पर्याय में सर्वज्ञता व वीतरागता मुख्य हैं। उनकी इस अवस्था को गहराई से जाने बिना सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता। जब हम सर्वज्ञ व वीतरागी पर्याय को जानेंगे, तब हम यह जानेंगे कि सर्वज्ञता आत्मा के ज्ञानगुण की पर्याय है और वीतरागता चारित्रगुण की पर्याय है। इसप्रकार हमने गुण को जाना। फिर यह गुण आत्मा के हैं। इसप्रकार हमने द्रव्य को जाना। आचार्य कहते हैं कि अरहंत की पर्याय में जैसी सर्वज्ञता व वीतरागता प्रगट हुई है; वैसा ही हमारा स्वभाव है। इसप्रकार आत्मा के सर्वज्ञस्वभाव व वीतरागस्वभाव को जानने के लिए अरहंत का सर्वज्ञस्वभाव व वीतरागस्वभाव जानना जरूरी है। यहाँ कोई पूछता है कि क्या मेरे आत्मा में से भी सर्वज्ञता व वीतरागता की पर्याय प्रगट होगी? तब आचार्य कहते हैं कि भगवान ने उसके प्रगट होने की गारंटी दी है। लेकिन उसके प्रगट होने की एक व्यवस्थित विधि है; उस विधि से ही तेरा लक्ष्य सम्पन्न होगा। वह स्वभाव में है, इसलिए प्रगट होगी। वह विधि आत्मा के आश्रय की है; उसके आश्रय से ही तुझे सर्वज्ञता व वीतरागता मिलेगी। जब इस जीव को यह निर्णय हो जाता है कि मैं वर्तमान में भी वीतराग व सर्वज्ञस्वभावी हूँ; तब वर्तमान की पर्याय में जो राग व अज्ञान है; उसकी उपेक्षा करके वीतरागस्वभावी व सर्वज्ञस्वभावी अपने आत्मा में अपनापन हो जाता है। सातवाँ प्रवचन १२३ इसप्रकार आचार्य ने वीतराग व सर्वज्ञ स्वभाव प्रगट होने का उपाय बताया अर्थात् उपर्युक्त विधि बताई। __दूसरा बिन्दु यह है कि अरहंत और अपने आत्मा की समानता को जानो। द्रव्य और गुणों से तो यह आत्मा अरहंत के समान है ही; पर्याय में भी समानता है; क्योंकि कालान्तर में हमें भी तो ऐसी ही पर्याय प्रगट होगी। ___आगे टीका में अमृतचन्द्राचार्य ने द्रव्य, गुण, पर्याय को परिभाषित किया है कि अन्वय द्रव्य है, अन्वय के विशेषण गुण हैं और अन्वय के व्यतिरेक (भेद) पर्यायें हैं। इस कठिन विषय को भावार्थ में और अधिक सरलभाषा में स्पष्ट किया है - "इसप्रकार अपना आत्मा भी द्रव्य-गुण-पर्यायरूप से मन के द्वारा ज्ञान में आता है। इसप्रकार त्रैकालिक निज आत्मा को मन के द्वारा ज्ञान में लेकर - जैसे मोतियों को और सफेदी को हार में ही अन्तर्गत करके मात्र हार ही जाना जाता है; उसीप्रकार आत्मपर्यायों को और चैतन्यगुण को आत्मा में ही अन्तर्गर्भित करके केवल आत्मा को जानने पर परिणामी-परिणाम-परिणति के भेद का विकल्प नष्ट होता जाता है; इसलिए जीव निष्क्रिय चिन्मात्र भाव को प्राप्त होता है और उससे दर्शनमोह निरास्रव होता हुआ नष्ट हो जाता है। यदि ऐसा है तो मैंने मोह की सेना पर विजय प्राप्त करने का उपाय प्राप्त कर लिया हैऐसा कहा है।" आचार्य यहाँ कह रहे हैं कि मोती और डोरा मत देखो, हार को देखो; तभी वास्तविक आनंद आएगा। सभी यही कहते हैं कि मैंने नौलखा हार पहना है, ऐसा कोई नहीं कहता कि मैंने मोती पहने हैं। डोरा व मोती निकाल दो और मात्र हार रखो - ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं है। डोरा व मोती इसके विकल्प में नहीं हैं, ज्ञान में नहीं हैं; ज्ञान में मात्र हार है। बस बात इतनी ही है। 58
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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