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________________ प्रवचनसार का सार ऐसे ही ज्ञान ज्ञेयों को जानता है और ज्ञेय ज्ञान में जाने जाते हैं; तथापि ज्ञान ज्ञेयों में रंचमात्र भी नहीं जाता है। हमें ऐसा दिखाई देता है कि ज्ञान ज्ञेयों में चला गया है। जैसे इन्द्रनीलमणि की नीलिमा दूध में चली गई है - ऐसा दिखता है; उसीप्रकार ज्ञान ज्ञेयों में चला गया है - ऐसा दिखाई देता है। यद्यपि वह इन्द्रनीलमणि दूध में रंचमात्र भी नहीं गया है; तथापि ऐसा ही कहा जाता कि वह पूरे दूध में फैला हुआ है; क्योंकि पूरा दूध उससे प्रभावित हुआ है; उसके कारण पूरा दूध नीला दिखाई दे रहा है; इसलिए ऐसा कहा जाता है कि इन्द्रनीलरत्न सर्व दूधगत है। इसीप्रकार ज्ञान ज्ञेय में नहीं गया है। फिर भी ज्ञान ने उस ज्ञेय को जाना है। इसी अपेक्षा से उसे सर्वगत कहा जाता है । तात्पर्य यह है कि वहाँ गये बिना, ज्ञेय में रंचमात्र भी हस्तक्षेप किए बिना जाना जा सकता है, यह इसके ज्ञान का स्वभाव है, जो इसके ख्याल में नहीं आता है। यह आत्मा सर्वज्ञत्वस्वभाववाला है। अरहंत भगवान की सर्वज्ञता स्वभाव में से आई है। यह स्वभाव प्रगट हुआ है, यह कोई विकार प्रगट नहीं हुआ है। आचार्य कहते हैं कि आप पहले अरहंत को जानो, फिर आत्मा को जानने का नंबर आयेगा; क्योंकि तुम्हें सर्वज्ञता का ही स्वरूप ख्याल में नहीं है। तुम्हें सर्वज्ञता प्रगट करनी है न ? हाँ । तो फिर वह सर्वज्ञता क्या है ? कैसे प्रगट होगी? इसके बारे में जान लो। अपने लड़के के लिए कोई लड़की पसंद करते हैं तो क्या बिना देखे पसंद करते हैं ? वह हमारे घर में आएगी, जिन्दगी भर बहू बनकर रहेगी। इसीलिए कहते हैं कि थोड़ा पहले देख लेने दो। कोई कहे कि जिन्दगी भर देखना है; क्योंकि वह तुम्हारे ही घर में बहू बनकर रहनेवाली है।' तब वह कहता है कि - ‘पहले नहीं दिखा तीसरा प्रवचन सकते ? अरे! बिना देखे आएगी कैसे ? देखूगा पहले। ऐसे ही सर्वज्ञता प्राप्त करनी है और अतीन्द्रिय ज्ञान एवं अतीन्द्रिय सुख प्राप्त करना है तो प्रथम अतीन्द्रिय ज्ञान का स्वरूप क्या है, सर्वज्ञता कैसी है ? इसके संदर्भ में ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है। बिना ही जाने, केवलज्ञान जब हो जाएगा, तब देख लेंगे, ऐसा नहीं चलेगा। भाईसाहब ! एक बार सर्वज्ञता प्रगट होने के बाद वह मिटनेवाली नहीं है; क्योंकि वह 'भंगविहीनो ही भवो' अर्थात् भंग से रहित भव है। फिर वह अनंतकाल तक तुम्हारे ही पास रहेगी। यदि तुम्हें पसंद नहीं आई तो भी वापिस नहीं होगी। जिसप्रकार एक बार दुकान से लिया गया सामान वापिस नहीं होता है; इसलिए दुकान से सामान लेने से पहले ही उसे अच्छी तरह से देख लेते हैं, उसके लेने का विचार करने से पहले ही उसे अच्छी तरह से समझ लेते हैं। उसीप्रकार प्रथम सर्वज्ञता का स्वरूप अच्छी तरह से समझ लो। उसके बाद जब हमारी आत्मा पर हमारी दृष्टि जायेगी; तब सर्वज्ञता प्राप्त करने का पथ प्रारम्भ होगा। तब भी सर्वज्ञता प्राप्त नहीं होगी। फिर भी सर्वज्ञता प्राप्त करने में वर्षों लग सकते हैं। सर्वज्ञता प्राप्त होने का समय सर्वज्ञता को समझे बिना आरम्भ ही नहीं होगा। अरहंत के स्वरूप को जाने बिना आत्मा के स्वरूप को जानने की प्रक्रिया प्रारम्भ ही नहीं होगी। अशुद्ध सोने में शुद्ध सोना कितना है; यह जानने के लिए, पहले शत-प्रतिशत शुद्ध सोना देखना होगा, जानना होगा। कहीं ऐसा न हो कि नाई के यहाँ गए और बोले - "मेरे बाल बना दो। बाल बनवाने के कितने रुपए लोगे ?" तब वह कहता है - "यहाँ २ रुपए के भी बाल बनते हैं, १० रुपए के भी बाल बनते हैं, २० रुपए के भी बाल बनते हैं। तुम्हें जैसे बनवाने 25
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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