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________________ प्रवचनसार का सार तथा साथ में यह भी होता जाएगा कि तुम किसी से कहना नहीं और यदि तुमने ऐसा कहकर उस बात को और आगे बढ़ा दिया तो वह भी ऐसे ही बढ़ाएगा। इसलिए ऐसा कहना ही नहीं। गुप्त नामकी कोई चीज रखना ही नहीं। जो कहो, वह यही मानकर कहना कि यह सारे जगत में पहुँच जाएगी। कम से कम जिसके बारे में कहा जा रहा है; उस तक तो पहुँच ही जाएगी। दूसरों पर ऐसा दोषारोपण कभी मत करना कि - 'आप इस बात को पचा नहीं सके।' यदि तुम स्वयं ही इस बात को गुप्त नहीं रख सके तो जगत में और कौन इस बात को गुप्त रखेगा ? मैं प्रतिवर्ष अमेरिका जाता हूँ। वहाँ अमेरिकावालों से कहता हूँ कि - 'आप हिन्दुस्तान में पैदा हुए, हिन्दुस्तान में ही पढ़े, २५ वर्ष तक हिन्दुस्तान में रहे, हिन्दुस्तान में ही विवाह हुआ, सन्तान हुई। उसके बाद आप अमेरिका आए हो। यदि आप ही स्वयं अपनी संस्कृति को सुरक्षित नहीं रख पाए, अपने धार्मिक संस्कार जीवित नहीं रख पाए तो यह आपकी अगली पीढ़ी, जो यहाँ ही पैदा हो रही है; उनसे धार्मिक संस्कार जीवित रहेंगे' - ऐसी अपेक्षा करना व्यर्थ ही है। ऐसे ही मैं तुमसे कहता हूँ कि तुमने इस जैनतत्त्वज्ञान को समझा है; पाँच साल, दस साल अध्ययन किया है। यदि तुम ही इसे जीवित नहीं रखोगे तो फिर कौन रखेगा? दूसरे तो जैनधर्म के संबंध में शून्य हैं, उनसे क्या अपेक्षा करोगे? वह कहता है कि मैंने तो अकेले इनसे कहा था और इन्होंने दस लोगों से कह दिया। इन्होंने बहुत बड़ी गलती की। अरे भाई ! गलती यदि किसी ने आरंभ की तो वह तुमने ही आरंभ की है। भाई, एक दाना बो दो तो दश दाने पैदा होते ही हैं, उसमें क्या है? वह एक गेहूँ का दाना तुमने ही बोया है। रयणमिह इन्दणीलं दुद्धज्झसियं जहा सभासाए। तीसरा प्रवचन अभिभूय तं पि दुद्धं वट्टदि तह णाणमढेसु ।।३०।। (हरिगीत) ज्यों दूध में है व्याप्त नीलम रत्न अपनी प्रभा से। त्यों ज्ञान भी है व्याप्त रे निश्शेष ज्ञेय पदार्थ में ।।३०।। आचार्य कहते हैं कि दूध में पड़ा हुआ इन्द्रनील रत्न अपनी कांति से दूध को अभिभूत कर प्रवर्तित होता है, उसीप्रकार ज्ञान पदार्थों में प्रवर्तित होता है। इन्द्रनील नामक एक रत्न होता है, मणि होता है। उसका स्वभाव इसप्रकार होता है कि दूध में डाल दो तो सारा दूध नीला-नीला दिखाई देता है। इन्द्रनीलमणि की नीलिमा क्या दूध में प्रविष्ट हो गई ? यदि प्रविष्ट हो गई होती तो इन्द्र नीलमणि के उठाते ही दूध सफेद दिखाई नहीं देता। वह दूध नीला हुआ नहीं है, सिर्फ नीला दिख रहा है। यदि नीला रंग उस दूध में डाल देते और वह दूध नीला हो जाता तो फिर उसे पृथक् करने का कोई उपाय नहीं था; परन्तु इन्द्रनीलमणि को आप उठाकर अलग कर देते हो तो वह दूध बिल्कुल सफेद है। जब तुम्हें नीला दिख रहा है, तब भी वह बिल्कुल सफेद है। विवेकी को यह ख्याल में है कि वास्तव में दूध नीला नहीं, सफेद है; नीला दिखाई दे रहा है। इन्द्रनीलमणि की नीलिमा दूध में रंचमात्र भी नहीं गई है और न ही इन्द्रनीलमणि ने दूध में प्रवेश किया है। जैसे दूध में बिस्कुट डाल दो तो, उसके रोम-रोम में दूध मिल जाता है, वह गल जाता है। ऐसे ही इन्द्रनीलमणि के रोम-रोम में दूध मिल गया है क्या ? आचार्य कहते हैं कि इन्द्रनीलमणि में दूध का एक कण भी नहीं गया है। बाल्टी में इन्द्रनीलमणि जहाँ है, वहाँ दूध नहीं है और जहाँ दूध है, वहाँ इन्द्रनीलमणि नहीं है। फिर भी दूध नीला दिखाई दे रहा है। 24
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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