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________________ प्रवचनसार का सार इसलिए आचार्यदेव ने आगे की गाथा में भगवान को सर्वगत कहा है सव्वगदोजिणवसहोसव्वेविय तग्गया जगदि अट्ठा। णाणमयादो यजिणो विसयादो तस्स ते भणिदा ।।२६।। (हरिगीत ) हैं सर्वगत जिन और सर्व पदार्थ जिनवरगत कहे। जिन ज्ञानमय बस इसलिए सब ज्ञेय जिनके विषय हैं ।।२६।। ज्ञानमय होने से गणधरादि में प्रधान सर्वज्ञ भगवान सर्वगत हैं तथा उन सर्वज्ञ भगवान के ज्ञेयरूप विषय होने से जगत में स्थित सभी पदार्थ सर्वज्ञगत है - ऐसा कहा गया है। सभी पदार्थ जिनवरगत है अर्थात् संपूर्ण पदार्थ भगवान के ज्ञान के ज्ञेय बन गए हैं; इसलिए भगवान को सर्वव्यापी कहा गया है। समयसार में तो स्पष्ट कहा गया है कि - 'नास्ति सर्वोऽपि संबंध: परद्रव्यात्मतत्त्वयोः।" परद्रव्य और आत्मतत्त्व में कोई भी सम्बन्ध नहीं है। यह ज्ञेय-ज्ञायक संबंध भी तो एक संबंध है। सम्बन्ध है इसलिए यह पराधीनता का द्योतक है। तात्पर्य यह है कि 'आत्मा परद्रव्य को जानता है' - यदि हम ऐसा मानेंगे तो ज्ञेय-ज्ञायक संबंध हो जाएगा और आत्मा पराधीन हो जाएगा; ज्ञेयों के आधीन हो जाएगा अथवा ज्ञेय आत्मा के आधीन हो जाएँगे। इसलिए दोनों ही पराधीन हो जाएंगे। ___जैसे - एक व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति का हाथ पकड़ लिया और बोला कि 'अब मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगा।' इसमें जिसका हाथ पकड़ा वह भी बँधा और जिसने हाथ पकड़ा वह भी बंध गया; क्योंकि जबतक वह उसका हाथ नहीं छोड़े, तबतक वह कहीं नहीं जा सकता है। इसप्रकार दोनों बँधे हुए हैं। १. समयसार : आत्मख्याति, छन्द २०० तीसरा प्रवचन ऐसे ही ज्ञान ज्ञेय को जाने तो अकेले ज्ञेय ही नहीं बँधे, ज्ञान भी बंध जाएगा। ज्ञान को ज्ञेयों के पास जाना पड़ेगा अथवा ज्ञेयों को ज्ञान के पास आना पड़ेगा। मान लीजिए, हम आपके घर आए या आप हमारे घर आए; बंधन तो दोनों को ही हो गया । उतने समय दोनों को ही रुकना पड़ा। बहुत से लोग कहते हैं कि भाईसाहब ! हमें आपसे मिलना है, तो मैं कहता हैं कि क्या मैं आपके पास आ जाऊँ?' वे कहते हैं कि 'नहीं, नहीं; हम ही आपके पास आ जायेंगे।' दोनों यह जानते हैं कि यदि इन्होंने यह कह दिया कि मैं आपके घर आकर मिलूँगा, तो अब मैं घर में बंध गया । वे आए तो आए और नहीं आए तो नहीं आए। दो घंटे पहले भी आए और दो घंटे लेट भी आए - इसप्रकार मैं तो चार घंटे के लिए बंध गया। वे दोनों बंधना नहीं चाहते हैं; इसलिए दोनों मैं ही आ जाऊँगा' - ऐसा कहते हैं। वे कहते हैं कि आप तो घर पर ही रहो, आराम से।' अर्थात् तुम बंधो और मुझे समय मिलेगा तो मैं आऊँगा और यदि समय नहीं मिला तो नहीं आऊँगा। यदि वह उनके घर पर पहुँच जाता है और वे घर पर नहीं मिलते हैं तो यह बड़ा अपराध हो जाता है। वह कहता है 'आपसे बात हो गई थी, फिर भी आप घर पर नहीं रहे और मैं मुफ्त में ही आपके घर के चक्कर लगाता रहा। इसीप्रकार कुछ लोगों को यह शंका होती है कि ज्ञान ज्ञेयों को जानेगा तो ज्ञान ज्ञेयों से बंध जाएगा और ज्ञेय ज्ञान से बंध जाएगें तथा दो द्रव्यों के मध्य जो पृथकतारूप वज्र की दीवार है, वह टूट जाएगी; परद्रव्य और आत्मतत्त्व में कोई भी सम्बन्ध नहीं है - यह महासिद्धान्त खण्डित हो जाएगा। उक्त सन्दर्भ में आचार्यदेव २८वीं व २९वीं गाथा में कहते हैं कि जिसप्रकार चक्षु रूप को जानती है, उसीप्रकार ज्ञान ज्ञेयों को जानते हैं 20
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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