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________________ प्रवचनसार का सार ४४ होगा या फिर हमें आपके पास जाना होगा। इसके बिना मिलना कैसे होगा ? इसीप्रकार ज्ञान ज्ञेयों के पास नहीं गया, ज्ञेय ज्ञान के पास नहीं आये तो फिर मिले कैसे? अरे भाई ! दूर रहकर भी ज्ञान ज्ञेयों को जान लेता है तथा ज्ञेय ज्ञान में जान लिए जाते हैं - ज्ञान का तथा ज्ञेयों का ऐसा ही विचित्र स्वभाव है। ज्ञेय का स्वभाव है ज्ञान में जाये बिना अपना स्वभाव/स्वरूप भासित करा दे एवं ज्ञान का यह स्वरूप है कि ज्ञेयों के पास गये बिना, उनमें हस्तक्षेप किए बिना उनके स्वरूप को जान ले।। ऐसा जो ज्ञान का स्वभाव है; वह अतीन्द्रिय ज्ञान में प्रगट हो गया है। अतीन्द्रिय ज्ञान में यह सामर्थ्य है कि वह सुमेरु पर्वत के पास गए बिना भी उसे जान लेगा। सुमेरु पर्वत को तोड़े बिना उसके भीतर क्या है? वह उसे भी जान लेगा। ऐसे जानने में परज्ञेय को कभी कोई समस्या उत्पन्न नहीं हो सकती। कोई कहे कि हमें आपकी जाँच करना है; इसलिए खड़े हो जाओ, बैठ जाओ, कपड़े खोलो, औंधे हो जाओ। तो हम कहेंगे कि यह हमसे नहीं होगा। यदि कोई यह कहे कि दूर खड़े-खड़े ही हम आपको जान लेंगे। तो फिर हम यही कहेंगे कि जान सकते हो तो जान लो, हमें क्या करना है। इसप्रकार यदि हमें कोई परेशानी नहीं हो और कोई हमें जाने तो जान ले, हमें क्या है? ऐसे ही ज्ञान के जानने से यदि ज्ञेयों को भी कोई समस्या होती तो ज्ञेय भी ऐतराज करते; किन्तु उन्हें तो कोई समस्या नहीं है; क्योंकि ज्ञान उसके पास आएगा भी नहीं और ज्ञेयों को भी ज्ञान के पास जाना नहीं है, ज्ञेय अपना कार्य करते रहेंगे और सर्वज्ञ भगवान उसे जान लेंगे - ज्ञान का स्वभाव ऐसा ही है। तीसरा प्रवचन भगवान की दिव्यध्वनि के सार इस प्रवचनसार परमागम के ज्ञान तत्त्वप्रज्ञापन पर चर्चा चल रही है। इसमें प्रारम्भ की १२ गाथाओं में मंगलाचरण, शुद्धोपयोगरूप धर्म, उसका स्वरूप एवं फल के संदर्भ में वर्णन किया। १३वीं से २०वीं गाथा तक शुद्धोपयोग के फलस्वरूप अतीन्द्रिय ज्ञान एवं अतीन्द्रिय सुख प्राप्त होता है; इसकी चर्चा की। तत्पश्चात् २१वीं गाथा से ५२वीं गाथा तक ज्ञानाधिकार की चर्चा की। यहाँ आत्मा के ज्ञानस्वभाव की चर्चा नहीं की, अपितु उस अतीन्द्रिय ज्ञान की चर्चा की; जो शुद्धोपयोग से उपलब्ध होता है। ___ शुद्धात्मा के आश्रय से जो अनंतज्ञान-केवलज्ञान-सर्वज्ञता प्रगट होती है, उसकी चर्चा इस ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन के ज्ञानाधिकार में है। इसलिए इसे हम अतीन्द्रियज्ञानाधिकार भी कह सकते हैं। 'आत्मा ज्ञानप्रमाण है' अभी यह चर्चा चल रही है। यदि हम ज्ञान को छोटा और आत्मा को बड़ा मानेंगे तो अव्याप्ति दोष आएगा;क्योंकि ज्ञानलक्षण संपूर्ण आत्मा में व्याप्त नहीं होगा। अतः आत्मा को ज्ञानप्रमाण ही मानना चाहिए। हीणो जदि सो आदा तण्णाणमचेदणंण जाणादि। अहिओवाणाणादो णाणेण विणा कहं णादि।।२५।। (हरिगीत) ज्ञान से हो हीन अचेतन ज्ञान जाने किसतरह। ज्ञान से हो अधिक जिय किसतरह जाने ज्ञान बिन ।।२५।। यदि यह आत्मा ज्ञान से कम हो तो ज्ञान अचेतन हो जाने से जानता नहीं है तथा यदि यह आत्मा ज्ञान से अधिक हो तो ज्ञान के बिना वह कैसे जान सकता है ? 19
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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