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________________ पच्चीसवाँ प्रवचन प्रवचनसार परमागम के परिशिष्ट पर चर्चा चल रही है। आत्मा के ४७ धर्मों को जाननेवाले ४७ नयों की चर्चा करते हुए परिशिष्ट में आचार्यदेव कहते हैं - “यह आत्मा कौन है और कैसे प्राप्त किया जाता है - यदि ऐसा प्रश्न किया जाय तो इसका उत्तर पहले ही कहा जा चुका है और अब पुनः कहते हैं - प्रथम तो, आत्मा वास्तव में चैतन्यसामान्य से व्याप्त अनन्त धर्मों का अधिष्ठाता एक द्रव्य है; क्योंकि उन अनन्त धर्मों में व्याप्त होनेवाले जो अनंत नय हैं; उनमें व्याप्त होनेवाला जो एक श्रुतज्ञान-स्वरूप प्रमाण है, उस प्रमाणपूर्वक स्वानुभव से वह आत्मद्रव्य प्रमेय होता है।" न तो अनंत धर्म गिनाए जा सकते हैं और न ही अनंत नय बताए जा सकते हैं; क्योंकि वाणी की मर्यादा अनंत को व्यक्त करने में समर्थ नहीं है। अतः आचार्यदेव यहाँ ४७ नयों के माध्यम से आत्मा के ४७ विशिष्ट धर्मों को समझाते हैं। ___एक बात समझने की यह भी है कि समयसार के परिशिष्ट में प्रतिपादित ४७ शक्तियाँ तो गुण, धर्म और स्वभावरूप हैं और प्रवचनसार के परिशिष्ट में प्रतिपादित ४७ नयों के विषय आत्मा के धर्म हैं। नित्यत्व-अनित्यत्व, एकत्व-अनेकत्व आदि जोड़े से रहनेवाले गुणों को धर्म कहते हैं । गुणों की पर्यायें होती हैं और धर्मों की पर्यायें नहीं होती। अब यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि आत्मा में ये परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले धर्म एकसाथ कैसे रह सकते हैं ? ___इसी शंका के समाधान के लिए तथा अनेकान्त की सिद्धि के लिए ४७ नयों का चयन किया; क्योंकि इन ४७ नयों का विषय आत्मा में रहनेवाले ४७ धर्म ही हैं। पच्चीसवाँ प्रवचन द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक, निश्चय-व्यवहार तथा नैगमादि सात नयों से इन ४७ नयों की शैली भिन्न है; क्योंकि द्रव्यार्थिकनय व पर्यायार्थिकनय का विषय समस्त लोक है। ये नय समस्त लोक को द्रव्य और पर्याय दो भागों में विभाजित कर वस्तुस्वरूप प्रस्तुत करते हैं और निश्चय और व्यवहारनय का विषय आत्मा है। ये नय सम्पूर्ण जगत को स्व और पर में विभाजित कर वस्तुस्वरूप स्पष्ट करते हैं। नय दो प्रकार के होते हैं - एक तो सिद्धान्त के नय तथा दूसरे अध्यात्म के नय । सिद्धान्त के नय वे नय हैं, जो छहों द्रव्यों पर घटित होते हैं तथा अध्यात्म के नय वे नय हैं, जो मात्र आत्मा पर घटित होते हैं। द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयों का विषय क्रमशः द्रव्य और पर्याय हैं तथा निश्चय और व्यवहार नयों के द्वारा अभेद तथा भेद अथवा असंयोग तथा संयोग का ज्ञान कराया जाता है; किन्तु इन ४७ नयों में ऐसा कुछ भी नहीं है। इन ४७ नयों में आत्मा के एक-एक धर्म को ग्रहण करनेवाला एक-एक नय है। यदि समग्र आत्मा को ग्रहण करना हो, तो उसको एक धर्म से भी ग्रहण किया जा सकता है क्योंकि आत्मा एक 'अखण्ड वस्तु' है। ___जिसप्रकार एक किताब को पकड़ने के लिए यह जरूरी नहीं है कि पूरी किताब को पकड़ा जाय, उस किताब का एक कोना पकड़ कर भी पूरी किताब को पकड़ा जा सकता है; उसीप्रकार आत्मा का एक धर्म ग्रहण करने पर पूरे आत्मा का ग्रहण किया जा सकता है; लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमें आत्मा का एक धर्म अभीष्ट नहीं है; अपितु धर्मी आत्मा ही अभीष्ट है। धर्मी का तात्पर्य धर्मात्मा नहीं, अपितु अनंत धर्मों का अधिष्ठाता द्रव्य है। हमें धर्मों को ग्रहण नहीं करना है, अपितु धर्मी को ग्रहण करना है। एक-एक धर्म तो नय का विषय है तथा सम्पूर्ण धर्मी प्रमाण का विषय हैं। हमें नय के विषय को नहीं, अपितु प्रमाण के विषय को ग्रहण करना है। 194
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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