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________________ प्रवचनसार का सार जधजादरूवजादं उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्धं । रहिदं हिंसादीदो अप्पडिकम्मं हवदि लिंग ।।२०५।। मुच्छारंभविजुत्तं जुत्तं उवओगजोगसुद्धीहि । लिंगं ण परावेक्खं अपुणब्भवकारणं जेण्हं ।।२०६।। (हरिगीत) शृंगार अर हिंसा रहित अर केशलुंचन अकिंचन । यथाजातस्वरूप ही जिनवरकथित बहिलिंग है ।।२०५।। आरंभ-मूर्छा से रहित पर की अपेक्षा से रहित । शुध योग अर उपयोग से जिनकथित अंतरलिंग है ।।२०६।। जन्मसमय के रूप जैसा रूप वाला, सिर और दाढ़ी-मूंछ के बालों का लोंच किया हुआ, शुद्ध अकिंचन, हिंसादि से रहित और प्रतिकर्म (शारीरिक शृंगार) से रहित - ऐसा श्रामण्य का बहिरंग लिंग है। मूर्छा और आरम्भ रहित, उपयोग और योग की शुद्धि से युक्त तथा पर की अपेक्षा से रहित - ऐसा जिनेन्द्रदेव कथित श्रामण्य का अंतरंगलिंग है, जो कि मोक्ष का कारण है। जैसा कि गाथा में कहा है कि श्रामण्य के दो लिंग हैं - एक का नाम बहिरंगलिंग है और दूसरे का नाम अंतरंगलिंग है; जिन्हें हम द्रव्यलिंग एवं भावलिंग भी कहते हैं। द्रव्यलिंग और भावलिंग के संबंध में हमारी बहुत गलत धारणाएँ हैं। 'द्रव्यलिंग' शब्द सुनते ही हमें ऐसा लगने लगता है जैसे मुँह में कड़वाहट सी आ गई हो। द्रव्यलिंग हमें बिल्कुल हेय लगता है और भावलिंग साक्षात् मोक्षस्वरूप ही प्रतीत होता है; लेकिन हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि कोई भी व्यक्ति द्रव्यलिंग और भावलिंग - दोनों के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर सकता। सिद्धचक्रमहामण्डलविधान की जयमाला में भी कहा है - भावलिंग बिन कर्म खिपाई, द्रव्यलिंग बिन मुनि शिवपद जाई। यो अयोग कारज नहीं होई, तुमगुण कथन कठिन है सोई।। इक्कीसवाँ प्रवचन ३३३ द्रव्यलिंग के बिना कोई मोक्ष चला जाय और भावलिंग के बिना कर्मों का नाश हो जाय - ये सब असंभव कार्य हैं। जब मोक्ष के लिए दोनों ही अनिवार्य हैं, तब एक बुरा और दूसरा अच्छा - यह कैसे हो सकता है ? अब यदि कोई कहे कि शास्त्रों में तो द्रव्यलिंगी मुनियों की बहुत निंदा की गई है। ____अरे भाई ! जहाँ द्रव्यलिंगी मुनियों की निंदा आती है, वह भावलिंग के बिना जो द्रव्यलिंग है, उसकी निंदा है; भावलिंग के साथ जो द्रव्यलिंग है, उसकी निंदा नहीं। वस्तुतः द्रव्यलिंग और भावलिंग तो साथ-साथ ही होते हैं। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि जिसप्रकार भावलिंग के बिना होनेवाले द्रव्यलिंग की निंदा होती है; उसीप्रकार द्रव्यलिंग के बिना भावलिंग की भी निंदा होनी चाहिए; परन्तु ऐसा नहीं होता। इसका उत्तर यह है कि द्रव्यलिंग के बिना भावलिंग होता ही नहीं है; पर द्रव्यलिंग भावलिंग के बिना हो जाता है। जब हम किसी को भावलिंगी कहते हैं, तब उसका अर्थ यह है कि वह भावलिंगी तो है ही, द्रव्यलिंगी भी है। यही कारण है कि शास्त्रों में भावलिंग की निंदा नहीं है। ___इस संबंध में दूसरा विवेचनीय बिन्दु यह है कि द्रव्यलिंग बाह्यक्रिया का नाम है और श्रामण्य के लिए उसका होना भी अनिवार्य है। शरीर की नग्नता आदि क्रिया संबंधी भाव है, शुभभाव हैं और भावलिंग शुद्धोपयोगरूप है, शुद्धपरिणतिरूप है। यद्यपि द्रव्यलिंग के बिना मोक्ष नहीं होगा, तथापि द्रव्यलिंग से भी मोक्ष नहीं होगा; क्योंकि द्रव्यलिंग तो जड़ की क्रिया और शुभभावरूप है और मोक्ष जड़ की क्रिया और शुभभावों से नहीं होता। गाथा २०५ में द्रव्यलिंग का जो स्वरूप कहा है, उसमें जो 'यथाजातरूप' कहा है; उसका तात्पर्य यह है कि जैसा माँ के पेट से 163
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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