SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३० प्रवचनसार का सार विभाग से आचार्यदेव ने दो विभाग किए, जिसमें बंधुवर्ग के लिए तो 'पूछकर' एवं माता-पिता आदि के लिए 'छूटकर' शब्दों का प्रयोग किया। यहाँ एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि यदि माँ-बाप ने दीक्षा लेने की अनुमति नहीं दी तो क्या होगा ? ऐसी स्थिति में उनकी अनुमति के बिना दीक्षा ले सकते हैं क्या ? इस संबंध में आचार्य अमृतचंद्र कहते हैं कि माँ-बाप से पूछे बिना तो दीक्षा नहीं ले सकते; क्योंकि यदि बिना पूछे और बिना सूचना दिए ही दीक्षा ले ली गई तो माता-पिता अपने पुत्र को यहाँ-वहाँ खोजेंगे और पुत्र के नहीं मिलने पर पुलिसथाने में रिपोर्ट भी लिखाएंगे। तात्पर्य यह है कि माँ-बाप से बिना पूछे दीक्षा लेने पर कानूनी परेशानी उत्पन्न हो सकती है। इसलिए दीक्षा के लिए माँ-बाप से पूछना जरूरी है । अरे भाई ! मात्र पूछना ही जरूरी नहीं है; अपितु माता-पिता पुत्र की दीक्षा के समय आचार्यश्री के सामने उपस्थित होकर अनुमति देते हैं। यद्यपि मुनिराज लोक की मर्यादा के बाहर होते हैं; लेकिन लोक की मर्यादाएँ उनके जीवन में बाधाएँ उत्पन्न नहीं कर दें; इसलिए सावधानी रखना जरूरी होता है। यदि असली माँ-बाप नहीं होते हैं तो दीक्षा के समय किसी को माँ-बाप तक बनाया जाता है और उनकी उपस्थिति में दीक्षा होती है। फिर भी मूल प्रश्न तो खड़ा ही है कि यदि माँ-बाप अनुमति न दे तो क्या होगा ? अरे भाई ! माँ-बाप से आज्ञा लेना सूचना मात्र होती है; क्योंकि ‘आज्ञा' शब्द ‘आ' अर्थात् 'मर्यादा पूर्वक' और 'ज्ञा' माने 'ज्ञान करा देना' । 'आज्ञा' का तात्पर्य ही यही है कि सभ्य शब्दों में यह ज्ञान करा देना कि मैं दीक्षा लेने के लिए जा रहा हूँ। लोक व्यवहार में भी 'आज्ञा' का यही अर्थ होता है। किसी ऑफिस यदि १० आदमी काम करते हों, तो छोटा कर्मचारी तो बड़े साहब से आज्ञा लेकर जाता ही है; पर साहब भी अपने आधीनों से कहते हैं कि 162 इक्कीसवाँ प्रवचन ३३१ मैं दो दिन के लिए छुट्टी पर जा रहा हूँ। तात्पर्य यह है कि यदि उच्चस्तर का कर्मचारी भी छुट्टी पर जाता है तो वह भी सूचना देकर जाता है। अन्तर मात्र इतना है कि दोनों की भाषा में पद के अनुरूप अन्तर हो जाता है। 'आज्ञा लेना' का तात्पर्य प्रकारान्तर से सूचना देना ही है। परिवार से आज्ञा लेने की एक भाषा है और उस भाषा को आचार्यदेव ने यहाँ प्रस्तुत किया है। वह भाषा इसप्रकार है कि दीक्षार्थी पुत्र माँ-बाप कहता है कि शरीर की उत्पत्ति में निमित्तभूत हे माँ, हे पिता ! न तुम मेरे माँ-बाप हो और न मैं तुम्हारा बेटा । अब मैं आत्मकल्याण के लिए जा रहा हूँ । इस भाषा के रूप में 'आज्ञा लेना' का तात्पर्य मात्र सूचना देना ही तो हुआ। पूज्य गुरुदेव श्री भी इस प्रकरण को बहुत मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करते थे और कहते थे कि देखो ! यहाँ निश्चय-व्यवहार की कितनी मनोरम संधि है। हे माँ, हे पिता ! ऐसा कहकर तो व्यवहार की स्थापना की और शरीर की उत्पत्ति में निमित्तभूत माँ और पिता ऐसा कहकर निश्चयनय की स्थापना की। 'हे माँ और हे पिताजी' से संबोधित कर व्यवहार की मर्यादा को भंग नहीं होने दिया और 'आपका और मेरा संबंध तो देह से है, आत्मा से नहीं' ऐसा कहकर तत्त्वज्ञान कराया। एक प्रकार से उस संबंध का निषेध कर निश्चय का प्रतिपादन किया । निश्चय से तो आज्ञा लेने की आवश्यकता ही नहीं है, व्यवहार से ही दीक्षा के लिए आज्ञा माँगी जाती है। अरे भाई! माँ-बाप से दीक्षा लेने की आज्ञा लेने का तात्पर्य मात्र उन्हें इस संबंध में सूचना देना ही है; अतः अनुमति देने, नहीं देने का प्रश्न ही नहीं है। दीक्षा लेनेवाले कभी इसप्रकार से नहीं पूछते हैं कि 'मैं दीक्षा लूँ या नहीं ?' अपितु माँ-बाप से यह कहते हैं कि 'मैं दीक्षा लेने जा रहा हूँ' । इसके बाद श्रामण्य के बहिरंग और अंतरग दो लिंगों का उपदेश करनेवाली गाथाएँ इसप्रकार हैं
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy