SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९८ प्रवचनसार का सार जिसप्रकार स्त्री की शादी स्त्री से नहीं होती, पुरुष की शादी पुरुष से नहीं होती। तात्पर्य यह है कि स्त्री की शादी पुरुष से और पुरुष की शादी स्त्री से होती है; उसीप्रकार स्निग्ध परमाणुओं का बंध स्निग्ध से नहीं होता और रूक्ष का रूक्ष से नहीं होता; पर स्निग्ध और रूक्ष का परस्पर बंध होता है। जिसप्रकार काम करने के लिए एक आदमी के पास पैसा है; पर काम करने की क्षमता नहीं है एवं दूसरे आदमी के पास काम करने की क्षमता है; पर पूँजी नहीं है; इसलिए वे दोनों भागीदार बन जाते हैं - एक काम करनेवाला भागीदार और दूसरा पूँजी लगानेवाला भागीदार । दो काम करने की क्षमता वाले भागीदार नहीं बन सकते, न दो पूँजी वाले भागीदार बन सकते हैं। उसीप्रकार स्निग्ध का स्निग्ध के साथ बंध नहीं होता एवं रूक्ष का रूक्ष के साथ बंध नहीं होता। आगे आचार्य कहते हैं कि आत्मा और पुद्गल का जो बंध होता है, उसके लिए भी स्निग्धता और रूक्षता चाहिए। स्निग्धता और रूक्षता के बिना जब पुद्गल का पुद्गल से बंध नहीं होता; तब पुद्गल का जीव के साथ बंध कैसे हो ? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि जब आत्मा परपदार्थों को राग-द्वेष-मोह पूर्वक जानता है; तब बंध होता है। पदार्थों को यह मैं हूँ' इसप्रकार जानने का नाम मोहपूर्वक जानना है, 'ये पदार्थ मेरे लिए सुखकर हैं' इसप्रकार जानने का नाम रागपूर्वक जानना है और ये पदार्थ मेरे को दुःखरूप हैं' इसप्रकार जानने का नाम द्वेषरूप जानना है। मात्र 'जानना' बंध का कारण नहीं है, मोह-राग-द्वेष पूर्वक जानना ही बंध का कारण है। 'ये मैं हूँ', 'ये मेरा है', 'ये मुझे अनुकूल हैं', 'ये मुझे प्रतिकूल हैं' - इसप्रकार जानना ज्ञान का स्वभाव नहीं है; यह तो मोह-राग-द्वेष का लक्षण है। मोह-राग-द्वेष पूर्वक जानना बंध का कारण है, इसमें 'जानना बंध का कारण है' इस बात पर जोर नहीं दिया जाना चाहिए। उन्नीसवाँ प्रवचन २९९ टीका में तो प्रतिभास शब्द आया है। कुछ लोग कहते हैं कि प्रतिभास अलग है और जानना अलग है। परपदार्थ प्रतिभासित होते हैं और स्व को जाना जाता है; परन्तु वस्तुतः प्रतिभास और जानने में कुछ भी अन्तर नहीं है। अरे भाई ! ऐसा कुछ भी नहीं है। केवलज्ञान में स्व और पर दोनों भासित होते हैं, ज्ञान को स्वपरावभासी कहा गया है। 'अवभासी' शब्द का प्रयोग स्व और पर दोनों के साथ किया गया है। चाहे ऐसा कहो कि पर प्रतिभासित होते हैं और स्व जानने में आते हैं और चाहे ऐसा कहो कि स्व प्रतिभासित होता है और पर जानने में आते हैं - एक ही बात है। इनमें कोई अंतर नहीं है। ___ 'यह मेरे अनुकूल है', 'यह मेरे प्रतिकूल है' - ऐसा जो उपराग हुआ, वास्तव में वही स्निग्ध है और वही रूक्ष है। राग स्निग्ध है और द्वेष रूक्ष है - इसप्रकार से आत्मा में स्निग्धता और रूक्षता है और इसीकारण से आत्मा पुद्गलकर्म से बंधता है। रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा । एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो।।१७९ ।। (हरिगीत) रागी बाँधे कर्म छूटे राग से जो रहित है। यह बंध का संक्षेप है बस नियतनय का कथन यह ।।१७९।। रागी आत्मा कर्म बाँधता है, रागरहित आत्मा कर्मों से मुक्त होता है - यह जीवों के बंध का संक्षेप है; निश्चय से ऐसा जानो। ___ इस गाथा में स्पष्ट लिखा है कि रागी जीव कर्म को बाँधता है। यहाँ 'रागी' का तात्पर्य एकत्वबुद्धि पूर्वक राग करनेवाला है। मिथ्यात्व सहित राग अथवा एकत्वबुद्धिवाला राग मात्र राग नहीं है; अपितु अनन्तानुबंधी राग है। 146
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy