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________________ २९६ प्रवचनसार का सार कुछ वह लुभाने की कोशिश सक्रियता से कर सकती है; लेकिन मूर्ति तो भी नहीं करती। अब, यदि संगमरमर की मूर्ति कुछ करती होती तो प्रत्येक देखनेवाले व्यक्ति को मोह-राग-द्वेष उत्पन्न होना चाहिए; लेकिन ऐसा नहीं होता है। इस उदाहरण से यह सिद्ध होता है कि हमारे ही अंदर ऐसी कोई योग्यता है; जिसके कारण मोह-राग-द्वेष होता है। अब समस्या यह है कि लोग कहते हैं कि यदि परपदार्थ जानने में नहीं आते, तो मोह-राग-द्वेष नहीं होता। इसप्रकार वे लोग जानने पर ही पूरा दोष मढ देते हैं। अरे भाई ! इससे अच्छे तो हम पहले ही थे; क्योंकि पहले हम जड़ कर्म को मोह - राग-द्वेष का कारण कहते थे और अब अपने स्वभाव अर्थात् जानने को ही मोह-राग-द्वेष का कारण मान रहे हैं। पहले हम कहते थे कि पर को हटाओ; किन्तु अब हम कहने लगे कि पर को जानो ही मत । अन्य दर्शनवाले कहते हैं कि ईश्वर जगत का कर्त्ता है और यदि जैनी कहें कि कर्म कर्ता है तो मैं कहना चाहता हूँ कि यदि पर को ही कर्त्ता मानना था तो जड़ेश्वर कर्म की अपेक्षा चेतन ईश्वर को ही कर्त्ता मान लेते। कर्म को कर्ता कहकर परद्रव्य को तो कर्त्ता मान ही लिया है। अरे भाई । परद्रव्य हमारा कर्त्ता-धर्ता नहीं है। हमारे सुख-दुःख के जिम्मेदार हम स्वयं ही हैं। अरे भाई ! पदार्थों का स्वभाव ज्ञेयत्व है, प्रमेयत्व है। अतः उन पदार्थों को किसी न किसी ज्ञान का विषय बनने से कौन रोक सकता है? आत्मा का स्वभाव जानना है, इसलिए आत्मा को ज्ञेयों को जानने से भी कौन रोक सकता है। ऐसा भी नहीं है कि पर-पदार्थों को समीप जाकर जानेगे, तभी वे जानने में आएंगे; क्योंकि ज्ञान का स्वभाव दूर से ही ज्ञेयों को जानने का है। केवली भगवान अलोकाकाश को जानते हैं। तो दूर से ही तो जानते हैं। 145 उन्नीसवाँ प्रवचन २९७ अरे भाई! अलोकाकाश को तो हम भी जानते हैं; क्योंकि शास्त्रों से जानना भी तो जानना ही है। इसप्रकार परपदार्थ बंध का कारण नहीं हैं; अपितु उन पदार्थों को जानकर उनमें एकत्वबुद्धि करना बंध का कारण है। इसप्रकार हमने जाना कि बंध होने में न तो परपदार्थों का दोष है। और न ही आत्मा के जाननेरूप स्वभाव का; अपितु पर-पदार्थों को जानकर उनसे होनेवाले मोह-राग-द्वेष ही बंध के कारण हैं। इसप्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि एक आत्मा है और दूसरे मोहराग-द्वेषादि भाव- इन दो में बंध होता है। तात्पर्य यह है कि मोहराग-द्वेषादि भावों के द्वारा मलिन स्वभाव वाला आत्मा स्वयं ही भावबंध है; क्योंकि षट्कारक एक ही द्रव्य में घटित होते हैं। पंचास्तिकाय ग्रन्थ की ६२वीं गाथा में विकार के अभिन्न षट्कारक के माध्यम से भी यह बात स्पष्ट की गई है । तदनन्तर भावबंध से द्रव्यबंध का स्वरूप कहनेवाली गाथा १७६ की टीका इसप्रकार है - "यह आत्मा साकार और निराकार प्रतिभासस्वरूप अर्थात् ज्ञानदर्शनस्वरूप होने से प्रतिभास्य ( प्रतिभास होने योग्य) पदार्थ समूह को जिस मोहरूप, रागरूप या द्वेषरूप भाव से देखता है और जानता है, उसी से उपरक्त होता है। वह उपराग (विकार) ही वास्तव में स्निग्धरूक्षत्वस्थानीय भावबंध है और उसी से पौद्गलिक कर्म बँधता है। इसप्रकार द्रव्यबंध का निमित्त भावबंध है।" दो रेत के परमाणु आपस में नहीं बँधते हैं, दो तेल के परमाणु भी आपस में नहीं बंधते हैं; क्योंकि रेत के दोनों ही परमाणु रूक्ष हैं और तेल के दोनों ही परमाणु स्निग्ध हैं; किन्तु रेत और तेल के परमाणु आपस में बंध जाते हैं; क्योंकि उनमें कुछ परमाणु स्निग्ध और कुछ रूक्ष हैं।
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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