SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार का सार २८४ प्रश्न उठाते हुए उसके २० बोल लिखे हैं, २० अर्थ किये हैं; जिनका विस्तृत विवेचन प्रवचनसार अनुशीलन में विस्तार से किया जा रहा है। जिन्हें उक्त प्रकरण के संबंध में विशेष जिज्ञासा हो; वे अपनी जिज्ञासा वहाँ से शान्त करें। उनका उक्त कथन इसप्रकार है आत्मा (१) रसगुण के अभावरूप स्वभाववाला होने से, (२) रूप गण के अभावरूप स्वभाववाला होने से. (३) गंधगुण के अभावरूप स्वभाववाला होने से, (४) स्पर्शगुणरूप व्यक्तता के अभावरूप स्वभाववाला होने से, (५) शब्दपर्याय के अभावरूप स्वभाववाला होने से, तथा (६) इन सबके कारण (अर्थात् रस, रूप, गंध इत्यादि के अभावरूप स्वभाव के कारण) लिंग के द्वारा अग्राह्य होने से और (७) सर्वसंस्थानों के अभावरूप स्वभाववाला होने से, आत्मा को पुद्गलद्रव्य से विभाग का साधनभूत (१) अरसपना, (२) अरूपपना, (३) अगंधपना, (४) अव्यक्तपना, (५) अशब्दपना, (६) अलिंगग्राह्यपना और (७) असंस्थानपना है। जीव को अरस, अरूप, अगंध कहने के बाद आचार्य जीव को अव्यक्त कहते हैं। अव्यक्त का तात्पर्य होता है, जो प्रकट नहीं है; जबकि इसी ग्रंथ में पूर्व में आत्मा को प्रगट अतिसूक्ष्म विशेषण भी दिया है अर्थात् आत्मा प्रगट तो है; लेकिन अतिसूक्ष्म है। सूक्ष्म और स्थूल ज्ञान के सन्दर्भ में एक व्याख्या तो यह है कि मूर्तिक पदार्थों के ज्ञान को स्थूलज्ञान कहते हैं और अमूर्तिक पदार्थों के ज्ञान को सूक्ष्मज्ञान कहते हैं। __दूसरी व्याख्या यह है कि जो केवलज्ञानगम्य है, वह विषय अपने लिए सूक्ष्म है और जो अपनी बुद्धिगम्य है, वह अपने लिए स्थूल है। मोक्षमार्गप्रकाशक में भी इसी दूसरी अपेक्षा से वर्णन आया है। आचार्य समंतभद्र ने भी आप्तमीमांसा की ५वीं कारिका में सर्वज्ञसिद्धि के संदर्भ में लिखा है - अठारहवाँ प्रवचन सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षा: कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्र्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः।। इसके अर्थ में आचार्यदेव ने सूक्ष्म पदार्थ के उदाहरण में परमाणु को प्रस्तुत करते हुए कहा है कि परमाणु सूक्ष्म है। इसप्रकार यदि भगवान आत्मा को अनुभव करके देखा जाय तो अत्यंत प्रगट है; क्योंकि अनंत केवलज्ञानियों के द्वारा अत्यंत स्पष्टरूप से जाना जाता है, छिपा हुआ नहीं है। भगवान आत्मा हमारे ज्ञान में नहीं आ रहा है - इस अपेक्षा से अव्यक्त है और इन्द्रियों के द्वारा भी जानने में नहीं आ रहा, इसलिए भी अव्यक्त है। उसके बाद आचार्यदेव ने जीव को चेतनागुण से युक्त कहा, ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग को जीव का लक्षण कहा। इसके पूर्व अरस, अगंध, अरूप, अव्यक्त - ये सभी तो जीव में नकारात्मक लक्षण थे और जीव चेतनागुण वाला है - यह सकारात्मक लक्षण है। ___ तदनन्तर जीव को अनिर्दिष्टसंस्थान से युक्त कहा अर्थात् जीव असंख्यातप्रदेशी होने पर भी उसका आकार निश्चित नहीं है; क्योंकि कभी तो मनुष्याकार में रहता है और देवाकार हो जाता है। ___यदि कोई कहे कि ६०-७० वर्ष तक जबतक मनुष्य अवस्था में है, तबतक तो मनुष्याकार ही है न ? उससे कहते हैं कि मनुष्याकार भी तो एक नहीं है, वह भी प्रतिसमय बदलता है, बैठे हुए मनुष्य की आत्मा का आकार अलग है और खड़े हुए मनुष्य की आत्मा का अलग। हाथ हिलते रहने में, साँस लेते रहने में - इत्यादि संसारी जीवों की अवस्थाओं में आत्मा के प्रदेशों का आकार भी बदलता रहता है। सिद्धजीवों का अनंतकाल तक एक ही आकार रहता है। निश्चय से जीव का आकार असंख्यातप्रदेशी है और व्यवहार में कोई न कोई आकार है और वह आकार अनिर्दिष्ट है। निर्दिष्ट अर्थात् जिसे कहा जा सके और अनिर्दिष्ट अर्थात् जिसे नहीं कहा जा सके। 139
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy