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________________ प्रवचनसार का सार २८३ २८२ आचार्य कहते हैं कलई कलई की है - ऐसे सद्भूतव्यवहार से क्या लाभ ? वास्तव में कलई तो कलई है। कलई की कलई है - इसमें संबंध की बात झलकती है और संबंध दो वस्तुओं में होता है। कलई तो कलई है - यह निश्चय है। इसी को आगे और भी बढ़ाया जा सकता है कि कलई तो कलई है; इसमें दो कलई बोलने की क्या आवश्यकता है ? कलई है - इतना ही पर्याप्त है। जिसप्रकार कलई दीवाल की है - यह व्यवहार है; उसीप्रकार आत्मा पर को जानता है - यह भी व्यवहार है। कलई दीवार पर लगी हुई है - यह बात सही है; वैसे ही पर को आत्मा ने जाना - यह भी सही है; किन्तु पर को जानने के कारण व्यवहार है। आत्मा ने पर को जाना; किन्तु तन्मय होकर नहीं जाना; यह मैं हूँ - ऐसा नहीं जाना; ये मुझसे भिन्न पदार्थ है - ऐसा जाना, इसलिए वह व्यवहार है। __आत्मा ने स्वयं को जाना - इसमें भी भेदव्यवहार है। आत्मा ने आत्मा को जाना - ऐसा कहने पर कोई दो आत्मा तो है नहीं कि एक आत्मा तो वह हो जिसने जाना और दूसरी आत्मा वह हो जिसको जाना गया हो। यह तो एक ही आत्मा में भेदव्यवहार है; क्योंकि आत्मा में ज्ञेयत्व नामक धर्म भी है, जिसके कारण उसको जाना गया और ज्ञान नामक गुण भी है जिससे उसने जाना। इसप्रकार एक ही आत्मा में दो भेद करने से भेदव्यवहार हो गया। पर को आत्मा व्यवहार से जानता है; इसलिए यदि यह बात झूठी है तो फिर आत्मा ने जो स्वयं को जाना - वह भी झूठा ही सिद्ध होगा; क्योंकि यहाँ भी ज्ञाता और ज्ञेय का भेद खड़ा किया गया है। जिस व्यवहार की वजह से पर को जानना झूठा है तो फिर उसी व्यवहार की वजह से स्वयं को जानना भी झूठा है; इससे स्वयं को जानना भी असंभव हो जाएगा। इन्द्रियज्ञान हेय है - यह बात तो सही है; क्योंकि उससे पुद्गल ही अठारहवाँ प्रवचन जानने में आता है और पुद्गल को जानने से मूल प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती; किन्तु पुद्गल जान लेने से हमारे ऊपर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ेगा - ऐसी बात भी नहीं है। यदि यह बात हो तो सर्वज्ञ भगवान के ऊपर भी विपत्ति आ जाय; क्योंकि वे पर को जानते हैं। इसमें एक बात अवश्य है कि हम सब रागी-द्वेषी जीव हैं, हमें उन्हीं पदार्थों से राग-द्वेष होता है, जिन्हें हम जानते हैं; किन्तु वह जानने के कारण नहीं होता; अपितु अन्दर की विकृति के कारण होता है, मिथ्यात्व के कारण होता है। इसप्रकार इस गाथा में दो बातें मुख्यरूप से कही गई हैं। प्रथम तो, यह कि शरीर में जो रूप, रस, गंध, स्पर्श हैं, वे आत्मा में नहीं हैं; इसलिए आत्मा शरीर से भिन्न है। दूसरी बात यह है कि जो रूपादि इन्द्रियों के माध्यम से जाने जाते हैं, वे आत्मा में हैं ही नहीं; इसलिए आत्मा को जानने के लिए इन्द्रियाँ बेकार हैं। भगवान आत्मा आँख खोलकर देखने की चीज नहीं है; अपितु आँख बन्द करके देखने की चीज है। यहाँ पर एक बात सीखने की है। जब दो विद्वान एक ही गाथा का थोड़ा अलग-अलग अर्थ करते हैं अथवा एक संक्षेप में करता है और दूसरा विस्तार से करता है, तो हमें उन्हें दो पार्टियों में खड़ा नहीं करना चाहिए। अरे भाई। ऐसा भी हो सकता है कि एक ही विद्वान एक गाथा का अर्थ पहली बार संक्षेप में करे और दूसरी बार विस्तार से करे। वास्तव में यह कोई मतभेद नहीं है। हमें तो यह देखना चाहिए कि उसका जो अर्थ किया जा रहा है, वह उसमें से निकल रहा है या नहीं ? आचार्य अमृतचन्द्र ने इस गाथा का अर्थ विभिन्न ग्रन्थों में भिन्नभिन्न प्रकार से किया है। १७२वीं गाथा में अरस, अरूप, अगंध, अस्पर्श आदि के लिए एक-एक बोल ही लिखा है। हाँ, एक बात अवश्य है कि इस गाथा में अलिंगग्रहण के संबंध में 138
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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