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________________ २७६ प्रवचनसार का सार जिसप्रकार अर्जुन के जरा से हँसने से उन्हें रात्रि में देवांगना के आगमन रूप विपत्ति का सामना करना पड़ा; उसीप्रकार परपदार्थ ज्ञान में आने पर तो कोई परेशानी नहीं है; किन्तु यदि जीव ने उन परपदार्थों में अपनापन स्थापित कर लिया तो बंध होगा ही। कर्मरूप परिणत पुद्गलद्रव्यात्मक शरीर का कर्ता आत्मा नहीं है का तात्पर्य यह है कि आत्मा कार्माण शरीर का कर्त्ता नहीं है। आचार्य कहते हैं कि यद्यपि जीव अज्ञान अवस्था में उन मोह-राग-द्वेष भावों का कर्ता है; किन्तु इन द्रव्यकर्मों और तन-मन-वचन की क्रिया का कर्त्ता नहीं है। तदनन्तर आत्मा के शरीरपने का अभाव निश्चित करनेवाली १७१वीं गाथा इसप्रकार है ओरालिओ य देहो देहो वेउव्विओ य तेजसिओ। आहारय कम्मइओ पोग्गलदव्वप्पगा सव्वे ।।१७१।। (हरिगीत) यह देह औदारिक तथा हो वैक्रियक या कार्मण । तेजस अहारक पाँच जो वे सभी पुद्गलद्रव्यमय ।।१७१।। औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, आहारक शरीर और कार्माण शरीर - ये सब पुद्गलद्रव्यात्मक हैं। __इसप्रकार आचार्य ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के ज्ञान-ज्ञेयविभागाधिकार में यह बता रहे हैं कि मैं क्या-क्या नहीं हूँ। औदारिक शरीर नहीं हूँ - यह कहकर देहादि के प्रति एकत्व छुड़ा रहे हैं। इसके बाद यह चर्चा आएगी कि ये शरीरादि पदार्थ तो स्पर्श, रस, गंध और वर्णवाले हैं; जबकि मैं अरस, अरूप, अस्पर्श, अगंध एवं चेतना गुण से संयुक्त ज्ञानानंदस्वभावी भगवान आत्मा हूँ। इसप्रकार यहाँ भेदविज्ञान की ही चर्चा है। अठारहवाँ प्रवचन प्रवचनसार परमागम के ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार पर चर्चा चल रही है। अभी तक विस्तार से यह बात हुई कि जीव क्या-क्या नहीं है ? देह नहीं है, मन नहीं है, वाणी नहीं है, कर्म नहीं है; इनका कर्ता-भोक्ता भी नहीं है और अब यह समझाते हैं कि आखिर जीव है क्या ? जीव का स्वरूप समझाते हुए १७२वीं गाथा में लिखा है कि - अरसमरूबमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्ध । जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिहिट्ठसंठाणं ।।१७२।। (हरिगीत) चैतन्य गुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है। जानो अलिंगग्रहण इसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है ।।१७२।। जीव को अरस, अरूप, अगंध, अशब्द, अव्यक्त, चेतनागुण से युक्त, अलिंगग्रहण (लिंग द्वारा ग्रहण न होने योग्य) और जिसका कोई संस्थान नहीं कहा गया है - ऐसा जानो। यह गाथा आचार्य कुन्दकुन्द के पाँचों परमागमों में उपलब्ध होती है। समयसार में ४९वीं, नियमसार में ४६वीं, पंचास्तिकाय संग्रह में १२७वीं, अष्टपाहुड़ के भावपाहुड़ में ६४वीं गाथा है और इस प्रवचनसार ग्रन्थ में १७२वीं गाथा है। यह गाथा न केवल कुन्दकुन्दाचार्य के पाँचों ग्रन्थों में है; अपितु षट्खण्डागम में भी है। इससे इस गाथा का महत्त्व सहज ही समझ में आ जाता है। ___ इसी सन्दर्भ में एक बात और समझने की है कि जितने भी प्राचीन ग्रन्थ हैं; उनमें से कुछ ग्रन्थ संग्रह ग्रन्थ हैं। द्रव्यसंग्रह एवं पंचास्तिकाय संग्रह आदि ग्रन्थों के अन्त में जुड़े हुए संग्रह शब्द यह बताते हैं कि इनकी गाथाओं का कहीं न कहीं से संग्रह किया गया है। 135
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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