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________________ प्रवचनसार का सार २७२ परिणमित होने की शक्तिवाले पुद्गलस्कंध, एकक्षेत्रावगाह जीव के परिणाम मात्र का आश्रय पाकर स्वयमेव कर्मभाव से परिणमित होते हैं। इससे निश्चित होता है कि पुद्गल पिण्डों को कर्मरूप करनेवाला आत्मा नहीं है। टीका में उल्लिखित कर्मरूप परिणमित होने की शक्तिवाले पुद्गलस्कन्ध का तात्पर्य कार्माणवर्गणायें हैं; क्योंकि २३ प्रकार के पुद्गलों में कार्माणवर्गणा नाम के जो पुद्गल होते हैं, वे ही कर्मरूप परिणमित होते हैं। शेष २२ प्रकार के पुद्गल कर्मरूप परिणमित नहीं होते। इससे भी यह बात सिद्ध होती है कि जिन परमाणुओं में कर्मरूप परिणमित होने की योग्यता है, वे ही पुद्गल परमाणु कर्मरूप परिणमित होते हैं, अन्य नहीं। ___इसप्रकार टीका में यह निश्चित किया है कि पुद्गलपिण्डों को कर्मरूप करनेवाला आत्मा नहीं है। न तो आत्मा पुद्गलपिण्डों को कर्मरूप करनेवाला है, न कारयिता है और न ही अनुमंता है। इसीप्रकार देह, मन और वाणी का भी आत्मा कर्ता नहीं है, कारयिता नहीं है और अनुमंता भी नहीं है। ___तात्पर्य यह है कि जीव के विकारी परिणाम को निमित्तमात्र करके कार्माण वर्गणाएँ स्वयमेव अपनी अन्तरंग शक्ति से ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमित होती हैं; जीव उन्हें कर्मरूप परिणमित नहीं करता। देह, मन और वाणी के साथ भी यही स्थिति है। कुछ लोग कहते हैं कि आचार्यदेव कर्म की ही बात क्यों कर रहे हैं? मैं राग नहीं हूँ, मैं सम्यग्दर्शन नहीं हूँ, मैं केवलज्ञान भी नहीं हूँ - ऐसा कहकर आगे क्यों नहीं बढ़ रहे हैं ? अरे भाई! आचार्य यहाँ कर्म की चर्चा करके यह बता रहे हैं कि शरीरादि के प्रति जीव को अपनापन कैसे हो गया है ? जीवों के अन्दर यह मान्यता बैठी हुई है कि यह सब मेरे ही अपराध सत्रहवाँ प्रवचन २७३ का फल है, मेरे ही शुभ और अशुभ भावों से इन शरीरादि का संयोग हुआ है - इस मान्यता का निवारण करने के लिए आचार्यदेव कह रहे हैं कि जीवों ने कुछ नहीं किया और जीवों के करने से कुछ होता भी नहीं है। यहाँ तो आचार्यदेव यह भी कह रहे हैं कि सभी जीव यह भावना उत्पन्न करें कि मैं इन शरीर, मन, वाणी का न कर्ता हूँ, न कारयिता हूँ और न अनुमंता हूँ, मैं तो इन सबका मात्र ज्ञाता-दृष्टा हूँ। राग का कर्ता तो जीव है न ? - यह प्रश्न उपस्थित होने पर यह स्वीकार करना कि हाँ अज्ञानदशा में राग हो गया था लेकिन राग का कर्ता होना - यह कोई गौरव की बात नहीं है और इससे अस्वीकृति भी नहीं है; क्योंकि राग अपने द्रव्य-गुण-पर्याय की सीमा में आता है और राग अज्ञान अवस्था में जीव से ही होता है। अरे भाई । जब अपनी अज्ञान अवस्था थी; उस समय स्वयं आत्मद्रव्य ही अज्ञानरूप परिणमित हुआ था। ऐसा पढकर कोई कहे कि - नहीं, द्रव्य नहीं; पर्याय अज्ञानरूप परिणमित हुई थी। अरे भाई! पर्याय तो परिणमन का ही नाम है। परिणमित तो द्रव्य ही होता है। द्रव्य को देखने की अनेक दृष्टियाँ हैं। जब द्रव्य को प्रमाण की दृष्टि से देखेंगे तो वह गुण-पर्याय सहित दिखाई देगा, द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से देखेंगे तो नित्य, त्रिकाली दिखाई देगा; किन्तु पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से देखेंगे तो वर्तमान पर्यायरूप परिणमित अनित्य दिखाई देता है। जिनागम में जो सप्तभंगी है, वह अत्यंत विचित्र है। मैं नित्यानित्य हूँ - यह प्रमाण का कथन है। मैं नित्य ही हूँ, अनित्य नहीं - यह द्रव्यार्थिकनय का कथन है। मैं अनित्य हूँ, नित्य नहीं - यह पर्यायार्थिकनय का कथन है। आजकल इसके लिए लोगों ने दूसरा रास्ता निकाल लिया और वे कहते हैं कि नय लगाने से या अपेक्षा लगाने से वस्तु ढीली हो जाती है। अरे भाई ! जिनागम में अपेक्षा के बिना तो एक वाक्य भी नहीं 133
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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