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________________ प्रवचनसार का सार २६० दिया तो आत्मा की सत्ता ही नहीं रहेगी; फिर तो वह गधे के सींग के समान हो जावेगा। ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्', 'सत् द्रव्यलक्षणम्' एवं 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' - महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र के इन सूत्रों में स्पष्ट है कि द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य एवं गुण व पर्यायों से युक्त होता है और यही ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार की पहली एवं इसी ग्रंथ की ९३वीं गाथा में कहा है; जो इसप्रकार है - अत्थोखलुदव्वमओदव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि । तेहिं पुणो पजाया पज्जयमूढा हि परसमया ।।१३।। (हरिगीत ) गुणात्मक हैं द्रव्य एवं अर्थ हैं सब द्रव्यमय। गुण-द्रव्य से पर्यायें पर्ययमूढ़ ही हैं परसमय ।।९३।। पदार्थ द्रव्यस्वरूप है; द्रव्य गुणात्मक कहे गये हैं; और द्रव्य तथा गुणों से पर्यायें होती हैं। पर्यायमूढ जीव परसमय (अर्थात् मिथ्यादृष्टि) है। इसप्रकार यहाँ असमानजातीयद्रव्यपर्यायरूप मनुष्य में विद्यमान आत्मा और देह के बीच भेदविज्ञान कराया गया है। आचार्यदेव कहते हैं कि आखिर जीव और पुद्गल का यह संयोग हुआ कैसे; जिससे हमें भेदविज्ञान करने की आवश्यकता आ पड़ी? इस देह और आत्मा का जो समागम हुआ है; उसमें देह और आत्मा का स्वरूपास्तित्व तो अलग-अलग ही है; पर आत्मा का सादृश्यास्तित्व मात्र शरीररूप परिणमित पुद्गल परमाणुओं के साथ ही नहीं; अपितु अलोकाकाश के साथ भी एक ही है; क्योंकि महासत्ता की अपेक्षा तो अलोकाकाश भी है और आत्मा भी है, अलोकाकाश भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त है और आत्मा भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त है, अलोकाकाश भी द्रव्य-गुण-पर्याय से संयुक्त है एवं आत्मा भी द्रव्य-गुण-पर्याय से संयुक्त है - इसप्रकार की एकता आत्मा की अलोकाकाश के साथ भी है। सत्रहवाँ प्रवचन २६१ स्वरूपास्तित्व अपने द्रव्य-गुण-पर्याय के अन्दर ही होता है; क्योंकि उन द्रव्य-गुण-पर्यायों के बीच परस्पर में अतद्भाव होता है, अत्यन्ताभाव नहीं होता है; अत्यन्ताभाव तो पर के साथ होता है, दो द्रव्यों के बीच में होता है। अत्यन्ताभाव एक द्रव्य के दो गुणों के बीच या एक द्रव्य की गुण-पर्यायों के बीच में नहीं होता । एक द्रव्य की गुण-पर्यायों के बीच में तो अतद्भाव होता है और जिनमें अतद्भाव होता है। उनका स्वरूपास्तित्व एक होता है। इसप्रकार जीव और पुद्गल का जो संगठन है; उसमें स्वरूपास्तित्व तो दोनों का भिन्न-भिन्न है; लेकिन सादृश्यास्तित्व तो सभी का सभी के साथ है। इससे हमें कोई हानि भी नहीं है; क्योंकि इससे हमें कुछ सुखदुःख भी नहीं है। सादृश्य की अपेक्षा भी एकत्व स्वीकार नहीं किया है - ऐसा मिथ्यात्व तो हमें हुआ है; लेकिन आकाशादि में एकत्वममत्व रूप (अपना माननेरूप) मिथ्यात्व आजतक नहीं हुआ है। इसप्रकार अलोकाकाश के साथ सादृश्यास्तित्व होने से कोई समस्या नहीं है। कार्माण वर्गणा और जिनसे हमारा नोकर्म शरीर बना है - ऐसी आहार वर्गणाओं के साथ हमारा संयोग कब से हुआ है, कैसे हुआ है ? - इस संबंध में आचार्यदेव बता रहे हैं। समयसार में कहा गया है कि बंध ज्ञानगुण के कारण हुआ। उक्त कथन के विशेष स्पष्टीकरण में कहा गया कि ज्ञानगुण के जघन्य परिणमन के कारण बंध हुआ; क्योंकि ज्ञानगुण के जघन्यपरिणमन के साथ राग का होना अनिवार्य है और राग से बंध होता है - यह तो सर्वमान्य ही है। आचार्यदेव कहते हैं कि ज्ञान के कारण पर जानने में आया; इसलिए उसे अपना मान लिया । यदि पर जानने में ही नहीं आता तो उसे अपना भी नहीं मानते । समस्त गड़बड़ी जानने में हुई; अतएव ज्ञान को ही बंध का कारण कह दिया। १५५वीं गाथा में वे लिखते हैं कि आत्मा उपयोगात्मक है और 127
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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