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________________ सत्रहवाँ प्रवचन प्रवचनसार परमागम में ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के अंत में समागत ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार पर चर्चा चल रही है। उसी संदर्भ में गाथा १५४ का भावार्थ इसप्रकार है - "मनुष्य, देव इत्यादि अनेकद्रव्यात्मकपर्यायों में भी जीव का स्वरूपास्तित्व और प्रत्येक परमाणु का स्वरूपास्तित्व (अर्थात् अपनेअपने द्रव्य-गुण-पर्याय और ध्रौव्य-उत्पाद-व्यय) स्पष्टतया भिन्न जाना जा सकता है। स्व-पर का भेद करने के लिये जीव के इस स्वरूपास्तित्व को पद-पद पर लक्ष्य में लेना योग्य है। यथा - यह (जानने में आता हुआ) चेतन द्रव्य-गुण-पर्याय और चेतन ध्रौव्य-उत्पाद-व्यय जिसका स्वभाव है - ऐसा मैं इस (पुद्गल) से भिन्न रहा; और यह अचेतन द्रव्य-गुण-पर्याय तथा अचेतन ध्रौव्यउत्पाद-व्यय जिसका स्वभाव है - ऐसा पुद्गल यह (मुझसे) भिन्न रहा; इसलिए मुझे पर के प्रति मोह नहीं है; स्व-पर का भेद है।" यह भावार्थ बहुत ही मार्मिक है तथा इस भावार्थ में दो-तीन बातें ऐसी हैं; जिन पर मुमुक्षु भाइयों का ध्यान नहीं है। मैं उन बातों पर आप सबका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। सर्वप्रथम तो मैं यह बताना चाहता हूँ कि आचार्यदेव ने ९३वीं गाथा में 'पज्जयमूढा हि परसमया' की बात की थी। उसमें जो अनेकद्रव्यात्मक असमानजातीय मनुष्यरूप व्यंजनपर्याय की चर्चा आरंभ की थी, वही चर्चा अभी तक निरन्तर करते आ रहे हैं। दूसरी बात यह है कि यह जो आत्मा और पुद्गलों का मिला हुआ मनुष्य नामक संगठन है; वह वास्तव में मिला नहीं है; क्योंकि इस संगठन को मिला हुआ हम तब कह सकते हैं, जब दोनों के स्वरूपास्तित्व सत्रहवाँ प्रवचन २५९ में कुछ अंतर आया होता; लेकिन आत्मा और पुद्गल परमाणुओं का स्वरूपास्तित्व बिल्कुल अलग-अलग है। उपरोक्त टीका में स्वरूपास्तित्व का अर्थ अपने-अपने द्रव्य-गुणपर्याय और ध्रौव्य-उत्पाद-व्यय बताया है। तात्पर्य यह है कि अपनेअपने द्रव्य-गुण-पर्याय और अपने-अपने ध्रौव्य-उत्पाद-व्यय का नाम स्वरूपास्तित्व है। ऐसे स्वरूपास्तित्व को पद-पद (कदम-कदम) पर अपने लक्ष्य में लेना योग्य है। यहाँ ऐसा समझना ठीक नहीं है कि यहाँ जो चेतन की बात चल रही है, वह तो किसी अन्य चेतनद्रव्य की बात चल रही है, यह चर्चा अपनी थोड़े ही है। 'मैं' शब्द से वाच्य आत्मा तो मैं नहीं; कोई दूसरा ही है। ___अरे भाई ! टीका में स्पष्ट लिखा है - "ऐसा मैं इस (पुद्गल) से भिन्न रहा" - इसप्रकार यह अपनी ही चर्चा है। पुद्गल को भी भिन्न करते हुए आचार्यदेव ने टीका में लिखा है कि - "यह अचेतन द्रव्यगुण-पर्याय तथा अचेतन ध्रौव्य-उत्पाद-व्यय जिसका स्वभाव है, ऐसा पुद्गल मुझसे भिन्न रहा । इसलिए मुझे पर के प्रति मोह नहीं है; स्व-पर का भेद है।" ___इस प्रवचनसार परमागम के ज्ञेयतत्वप्रज्ञापन में जहाँ एक पूरा अधिकार लिखा गया और उसका नाम ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार रखा; उसमें ज्ञान से जिसे अभिहित किया, उसका नाम तो जीव है और उससे मिली हुई जो पौद्गलिक पर्याय है; उसका नाम है मनुष्यपर्याय; देवपर्याय अथवा असमानजातीयद्रव्यपर्याय । इस अधिकार में जीव और इस असमानजातीयद्रव्यपर्याय में भेदविज्ञान कराया गया है। कई लोग भेदविज्ञान के नाम पर आत्मा की पर्यायें तो आत्मा से अलग कर ही देते हैं, गुण और प्रदेश भी अलग कर देते हैं। अरे भाई। यदि आत्मा में से गुणों और प्रदेशों को भी अलग कर ___126
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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