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________________ २४० प्रवचनसार का सार परन्तु जैनदर्शन इसे पुद्गल की पर्याय मानता है। गुण तो त्रिकाली होते हैं; परन्तु शब्द कादाचित्क हैं अर्थात वे कभी होते हैं और कभी नहीं होते हैं। पर्याय का लक्षण कादाचित्क अर्थात् कभी होना और कभी नहीं होना है। शाश्वत रहना वह गुण का लक्षण है। शब्द में गुण का लक्षण नहीं पाया जाता; इसलिए वह पर्याय है। तब फिर यह प्रश्न होता है कि इन शब्दों में स्पर्श-रस-गंध-वर्ण तो देखने में आते नहीं हैं तो हम उसे कैसे ग्रहण करें? आचार्य कहते हैं कि यह पुद्गल है, मूर्तिक है और कर्णेन्द्रिय के द्वारा गोचर है। ___कुन्दकुन्दाचार्य देव इतना सामान्य वर्णन अपने शिष्यों के लिए कर रहे हैं। क्या उनके मुनि शिष्य छह द्रव्यों का स्वरूप नहीं जानते होंगे? ___ जानते होंगे, अवश्य जानते होंगे; परन्तु आचार्यों की यह रीति रही है कि किसी वस्तु का प्रतिपादन व्यवस्थित ढंग से करना है तो उसमें से सरल प्रकरणों को निकाल नहीं सकते, उन्हें भी लेना पड़ेगा और कठिन प्रकरणों को भी लेना पड़ेगा। तभी उसका सर्वांग विवेचन होगा। यदि मैं सरल-सरल व्याख्यान करूँ और कठिन विषय छोड़ दूं तो ग्रन्थ अधूरा रह जायेगा एवं कठिन-कठिन विषय रखू और सरल छोड़ दूं तो भी ग्रन्थ अधूरा रह जायेगा। इस ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार में प्रथम द्रव्यसामान्य का वर्णन किया, उसमें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, सादृश्यास्तित्व, स्वरूपास्तित्व इत्यादि का सूक्ष्मता से वर्णन किया एवं तदुपरान्त ६ द्रव्यों का वर्णन किया। इसप्रकार आचार्यदेव समग्र वर्णन कर रहे हैं; अतः भले ही विषयवस्तु सरल हो; फिर भी संक्षेप में उसका वर्णन करते हैं। यद्यपि हम आपको आत्मा से संबंधित तत्त्व की गहरी बात बताना चाहते हैं; परन्तु चर्चा का आरंभ तो यहाँ से ही होगा। आत्मा देह-देवल में विराजमान है; परन्तु देह से भी भिन्न है - यह स्थूल प्रकरण है और पन्द्रहवाँ प्रवचन २४१ केवलज्ञान से भिन्नता की बात सूक्ष्म है; तथापि चर्चा का आरंभ तो देह की भिन्नता से ही होगा। यदि हम ऐसा कहें कि केवलज्ञान से भिन्न है, राग से भी भिन्न है, देह से भी भिन्न है; तो इसमें भी क्रमभंग नामक दोष आता है। बिहारी महाकवि हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। उन्होंने बिहारी सतसई लिखी है, जिसके बारे में यह कहा जाता है कि - सतसैया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर । देखन में छोटे लगे, घाव करें गंभीर ।। बिहारी कवि के ही समकालीन एक 'देव' नामक कवि हुए हैं। बिहारी की तुलना में देव ने बहुत किताबें लिखी हैं। बिहारी ने मात्र ७०० दोहे लिखे; जबकि देव ने ७२ किताबें लिखी हैं, जिसमें मनहर कवित्त जैसे बड़े-बड़े छन्द हैं। मनहर कवित्त को इकतीसा सवैया भी कहा जाता है; जिसकी एक पंक्ति में ३१ अक्षर होते हैं। देव ने ७२ किताबें लिखी हैं; परन्तु ९९ प्रतिशत समीक्षकों का यही मत है कि बिहारी देव से भी महान कवि हैं; क्योंकि बिहारी में कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक बात कहने की क्षमता है; परन्तु बिहारी का एक दोहा ऐसा है, जिसे हमेशा क्रमभंग नामक दोष के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है; वह इसप्रकार है - कोई कोटिक संग्रहो, कोई लाख हजार। मौ संपत्ति यदुपति सदा, विपत्ति विदारनहार ।। कोई करोड़ रुपया एकत्र करे, कोई लाख, कोई हजार रुपये एकत्र करे; परन्तु मेरी संपत्ति तो विपत्ति को दूर करनेवाले एक श्रीकृष्ण ही हैं। सभी समीक्षक कहते हैं कि इतने बड़े कवि ने इतनी बड़ी गलती कैसे की? कोई हजारों संग्रहों, कोई लाखों संग्रहो, कोई करोड़ों - ऐसा कहना चाहिए था; परन्तु उन्होंने उल्टा कहा है - यह छन्द क्रमभंग नामक दोष से दूषित है। ___ 117
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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