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________________ प्रवचनसार का सार हमारी बारात आयेगी तो आप लोगों द्वारा स्वागत बढ़िया होना चाहिए, कम से कम पाँच प्रकार की मिठाइयाँ तो होनी ही चाहिए। तब यह कहता है कि भाईसाहब आपको जो कुछ चाहिए, वह सब बता दीजिए; बस आपका मार्गदर्शन चाहिए। २३८ तब बाराती कहते हैं कि नहीं, नहीं; बस पाँच प्रकार की मिठाइयाँ ही चाहिए। इस पर यदि वह मात्र पाँच मिठाईयाँ ही रखे और कुछ नहीं रखे; पानी, सुपारी, इलायची, लोंग कुछ भी नहीं रखे तो समस्या उपस्थित होगी ही। ऐसे ही आचार्यदेव ने कहा कि बस आत्मा को जानो; तुम्हारा कल्याण हो जायेगा और हमारे सामने तत्त्वार्थसूत्र, प्रवचनसार, समयसार, लघुसिद्धान्तकौमुदी और परीक्षामुख रख दिये। अभी वे यही कह रहे हैं। कि आत्मा का कल्याण करने के लिए आत्मा को जानना जरूरी है; भाषा को जानो तो ठीक, नहीं जानो तो ठीक। तब हम उन्हीं गुरुजी की तरफ मेंढ़े की भांति आश्चर्यान्वित होकर आँखे फाड़कर देखने लगेंगे। ऐसी स्थिति में उन्हीं गुरु को म्लेच्छ भाषा में ही सही, पर हमें किसी भाषा में ही समझाना पड़ता है। इसलिए आचार्यदेव ने द्रव्यों के वर्गीकरण में उन्हें मूर्त और अमूर्त इन भेदों में भी विभाजित किया है। जो इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य है, वह मूर्त है। इसका मतलब यह नहीं है। कि मूर्त पदार्थ का ज्ञान इन्द्रियों के बिना नहीं होता; क्योंकि मूर्त पदार्थों का ज्ञान अरिहंत और सिद्ध भगवान को इन्द्रियों के बिना ही होता है। इसप्रकार इस लक्षण में तो अव्याप्ति दोष आता है; क्योंकि परमाणु आदि बहुत से मूर्त पदार्थ इन्द्रियों द्वारा नहीं जाने जाते, वे केवलज्ञान और अनुमान व आगमादि प्रमाणों से जाने जाते हैं। अरे भाई ! अतिव्याप्ति, अव्याप्ति- ये दोष न्यायशास्त्र की मुख्यता से हैं। यहाँ तो आचार्यदेव ने यह परिभाषा इसलिए बनाई है कि इस 116 पन्द्रहवाँ प्रवचन २३९ जीव को यह समझ में आ जाय कि चक्षु आदि इन्द्रियों से जो भी दिख रहा है, वह सब पुद्गल है, आत्मा नहीं है, यह मैं नहीं हूँ । सिद्ध भगवान बिना इन्द्रियों के जिन पदार्थों को देखते - जानते हैं; उनमें परमाणु भी है, जो स्थूल इन्द्रियों के द्वारा पकड़ में नहीं आता । स्कन्ध इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य है और परमाणु इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है तो क्या वह पुद्गल नहीं है ? परमाणु इतना सूक्ष्म है कि वह चक्षु इन्द्रिय की पकड़ में नहीं आता; परन्तु वही परमाणु जब अनेक परमाणुओं से मिलता है, तब वह स्कन्ध बन जाता है। इससे आशय यह है कि परमाणु में भी वह तत्त्व विद्यमान है, जो इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य हैं; परन्तु हमारी इन्द्रियविशेष की यह कमजोरी है कि उतनी सूक्ष्म चीज को हम देख नहीं सकते हैं। सुई का छेद देखने में तो आता है; परन्तु कोई कहे कि मुझे दिखता नहीं है तो वह उसकी बात है। यदि उसे सुई का छेद आँख से दिखाई नहीं देता तो उसे चश्मा लगवा लेना चाहिए। यदि उसकी आँख से सुई का छेद दिखाई नहीं देता तो इसका अर्थ यह तो नहीं हो सकता कि सुई का छेद आँखों के दिखता ही नहीं है। हवा भी पुद्गल है, वह भी चक्षु इन्द्रिय के द्वारा जानने में नहीं आती; परन्तु रूप तो उस हवा में भी है; फिर भी वह चक्षुइन्द्रिय से देखने में नहीं आता है। आचार्यदेव ने तर्क-वितर्क से यह सिद्ध किया है कि उसमें वे तत्त्व विद्यमान हैं, जो इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करने में आते हैं; परन्तु हमारे ही इन्द्रिय - विशेष की कमजोरी है कि जिसके कारण से हमें नहीं दिखते । यहाँ यह प्रश्न किया है कि शब्द गुण है या पर्याय ? स्पर्श स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य है, रस रसनेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य है, गंध घ्राणेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य है; रूप चक्षु इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य है और शब्द कर्ण इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य है। वैशेषिक शब्दों को आकाश का गुण कहते हैं;
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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