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________________ प्रवचनसार का सार ___२३५ २३४ आवश्यक है। प्रेरक निमित्त कहते ही सभी को यही समझ में आता है कि गुरुजी प्रेरक निमित्त हैं; क्योंकि वे डंडा मारकर पढ़ाते हैं। पुस्तक उदासीन निमित्त है; क्योंकि पढ़ाई में पुस्तक सहायता देती है; किन्तु पढ़ाई के लिए बाध्य नहीं करती; परन्तु शास्त्रों में प्रेरक और उदासीन निमित्तों की ऐसी व्याख्या नहीं है। शास्त्रों में ऐसा लिखा है कि क्रियावान द्रव्यों को प्रेरक निमित्त कहते हैं और निष्क्रिय द्रव्यों को उदासीन निमित्त कहते हैं। यहाँ उदाहरण इसप्रकार दिया जाता है कि हवा ध्वजा के चलने में प्रेरक निमित्त है; क्योंकि हवा चलती है, क्रियावान है। धर्मद्रव्य उदासीन निमित्त है; क्योंकि वह क्रियावान नहीं है; एक जगह से दूसरी जगह नहीं जाता है। धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलों को गति करने में निमित्त है; परन्तु स्वयं गति नहीं करता । इसप्रकार स्वयं जिसमें गति नहीं है, उसे उदासीन निमित्त कहा है। ऐसा नहीं है कि प्रेरक निमित्त अधिक बलवान है। गुरुजी डण्डा मार-मारकर पढ़ाते हैं, हवा खूब चल करके ध्वजा को उड़ाती है। इसी भाषा ने लोगों के चित्त में भ्रम उत्पन्न किया है कि प्रेरक निमित्त बहुत बलवान है एवं उदासीन निमित्त ऐसे ही पड़ा रहता है। इसीलिए आचार्यदेव को यह लिखना पड़ा कि सभी निमित्त कार्य होने में धर्मास्तिकाय के समान ही उदासीन हैं। ___ यदि ऐसा है तो प्रश्न यह है कि आचार्यदेव ने प्रेरक और उदासीन निमित्त - ऐसे दो भेद ही क्यों किये? जिनकी क्षेत्र से क्षेत्रान्तर गति होती है - ऐसे निमित्त एवं जिनकी क्षेत्र से क्षेत्रान्तर गति नहीं होती है - ऐसे निमित्त - इसप्रकार दो प्रकार के निमित्तों को बताने के लिए उन्होंने दो भेद किये । इच्छावान और क्रियावान निमित्तों को प्रेरक निमित्त कहते हैं। जीव में इच्छा भी है और पन्द्रहवाँ प्रवचन क्रिया भी है, पुद्गल में मात्र क्रिया है, इच्छा नहीं है। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य इनमें इच्छा भी नहीं है और क्रिया भी नहीं है; इसलिए ये चार द्रव्य उदासीन निमित्त हैं एवं जीव और पुद्गल द्रव्य प्रेरक निमित्त हैं। जीव व पुद्गल दोनों ही क्रियावान होने से प्रेरक निमित्त हैं; इसीलिए हवा को प्रेरक निमित्त कहा है। हवा में जीव एवं पुद्गल दोनों मिले हुए हैं। जिस दण्ड पर वह ध्वजा खड़ी थी, उस दण्ड को उदासीन निमित्त कहा। भेद तो मात्र यह बताने के लिए किया था; पर हमने उसमें से निमित्त की बतबत्ता खोजनी शुरू कर दी। इसप्रकार क्रियावान और भाववान ये दो भेद करने के बाद आचार्यदेव ने मूर्तिक और अमूर्तिक ये दो भेद किये। मूर्तिक कहते ही पुद्गल की मुख्यता हो गई; क्योंकि पुद्गल मूर्तिक है - स्पर्शरसगन्धवर्णवन्त: पुद्गलाः । रूपिणः पुद्गलः।' जिसमें स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण हैं, वे पुद्गल हैं एवं पुद्गल रूपी अर्थात् मूर्तिक है। मूर्त की परिभाषा इसप्रकार है - मुत्ता इंदियगेज्झा पोग्गलदव्वप्पगा अणेगविधा। दव्वाणममुत्ताणं गुणा अमुत्ता मुणेदव्वा ।।१३१।। ( हरिगीत ) इन्द्रियों से ग्राह्य बहुविधि मूर्त गुण पुद्गलमयी। अमूर्त हैं जो द्रव्य उनके गुण अमूर्तिक जानना ।।१३१।। पुद्गलद्रव्यात्मक इन्द्रियग्राह्य द्रव्य के गुण मूर्त हैं और अनेकप्रकार के अमूर्त द्रव्यों के गुण अमूर्त जानना चाहिए। यहाँ जो इन्द्रियों के पकड़ में आता है, उसे मूर्त कहा है। जो पकड़ता है, जानता है, वह तो आत्मा ही है। इन्द्रियाँ उसे नहीं जानती हैं; वे तो जड़ हैं। क्षयोपशमज्ञानवालों के जानने में इन्द्रियाँ 114 १. मोक्षशास्त्र (तत्त्वार्थसूत्र), पाँचवाँ अध्याय, सूत्र ५, २३
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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