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________________ प्रवचनसार का सार २३३ २३२ अकेला आकाश ही हो, वह अलोक या अलोकाकाश है। इसप्रकार आचार्यदेव ने यहाँ आकाश के नहीं, अपितु षड्द्रव्यमयी विश्व के दो भेद किये हैं - लोक और अलोक । जिसप्रकार जीव से इतर अजीव है; उसीप्रकार ही लोक से इतर अलोक है। लोक यह नामकरण भावात्मक (पॉजिटिव) है तो अलोक यह नामकरण अभावात्मक (निगेटिव) है। फिर सक्रिय द्रव्य और निष्क्रिय द्रव्य - ये दो भेद किये। छहों द्रव्यों में जीव एवं पुद्गल सक्रिय हैं। शेष चार द्रव्य निष्क्रिय हैं। परिणमनरूप क्रिया तो छहों द्रव्यों में होती है; परन्तु क्षेत्र से क्षेत्रान्तर अर्थात् एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाने की क्रिया मात्र जीव और पुद्गल - इन दो द्रव्यों में ही होती है। आकाश द्रव्य अनादिकाल से अपनी जगह अवस्थित है और रहेगा। धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य के प्रदेश भी अनादिकाल से अनंतकाल तक जहाँ व्याप्त है, वहीं व्याप्त रहेंगे। असंख्यात कालद्रव्य लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में रत्नों की राशि के समान खचित हैं। यहाँ रत्नों की राशि के समान कहकर आचार्यदेव यह कहना चाहते हैं कि पुद्गल के परमाणु तो स्निग्ध एवं रूक्षत्व गुण के कारण आपस में चिपक जाते हैं, बंध को प्राप्त हो जाते हैं और बिखर भी जाते हैं। रूक्ष होंगे तो बिखर जायेंगे और स्निग्ध होंगे तो चिपक जायेंगे; परन्तु कालद्रव्य आपस में चिपकते नहीं हैं। तात्पर्य यह है कि कालद्रव्य में स्कन्धरूप होने की योग्यता नहीं है; अत: उसकी मर्यादा एक प्रदेश मात्र की ही है। आकाश द्रव्य सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है; अतः उसमें क्षेत्रान्तर गमन की कोई सम्भावना नहीं है - ऐसे ही धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हैं; अत: उनके भी क्षेत्रान्तर गमन की कोई सम्भावना नहीं है। यदि रेल के डिब्बे में बैठे तो वहाँ हिलने-डुलने की गुजाइश रहती है; परन्तु किसी बर्तन में किसी चीज को ठसाठस भर दिया जाय तो पन्द्रहवाँ प्रवचन उसमें हिलने की गुजाइश नहीं रहती है - ऐसे ही धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य एवं कालद्रव्य लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में ठसाठस भरे हुए हैं। आकाश के अनंत प्रदेश हैं और उसके एक भाग असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में रत्नों की राशि के समान एक-एक कालद्रव्य खचित हैं। जैसे हार में जड़े हुए रत्न एक-दूसरे के पास हैं; पर परस्पर जुड़े नहीं हैं। अपना स्थान छोड़कर दूसरे स्थान में जाते नहीं हैं और दूसरों को अपने स्थान में आने नहीं देते हैं। रत्नों की राशि का उदाहरण देकर आचार्यदेव यह कहना चाहते हैं कि उनमें स्कन्ध होने की शक्ति नहीं है। प्रत्येक कालाणु अपने आप में परिपूर्ण द्रव्य है, वह किसी का अंश नहीं है। अनादिकाल से जिस आकाश के प्रदेश में जो कालद्रव्य स्थित है, वह अनादि से वहीं है और अनंतकाल तक वहीं रहेगा; वह वहाँ से हिलनेवाला नहीं है। इस दृष्टि से धर्म, अधर्म, आकाश और काल को निष्क्रिय कहा गया है। उनमें परिणमन नहीं होता है - ऐसी बात नहीं ध्यान रहे यहाँ परिणमनरूप क्रिया की बात नहीं है। यहाँ तो क्षेत्र से क्षेत्रान्तररूप गमन का नाम क्रिया है। एक आकाश के प्रदेश से दूसरे आकाश के प्रदेश में जाने का नाम क्रिया है। इसप्रकार आचार्यदेव ने द्रव्यों को सक्रिय एवं निष्क्रिय - इन दो भागों में विभाजित किया है। जीव व पुद्गल दो सक्रिय द्रव्य हैं एवं अन्य चार द्रव्य निष्क्रिय हैं। इसको प्रवचनसार में क्रियावान और भाववान इस रूप में भी कहा है। भाववान तो छहों द्रव्य हैं। भाववान अर्थात् परिणमनरूप क्रिया से सम्पन्न और क्रियावान अर्थात् क्षेत्र से क्षेत्रान्तररूप क्रिया से सम्पन्न । इसप्रकार आचार्य ने भाववान व क्रियावान ये दो विभाग भी द्रव्यों में किये हैं। क्षेत्र से क्षेत्रान्तररूप क्रिया की चर्चा प्रेरक निमित्त और उदासीन निमित्त के रूप में भी की जाती है; अत: यहाँ प्रेरक निमित्त को समझना 113
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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