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________________ प्रवचनसार का सार २२६ (विकार) भूत दुःख है; क्योंकि वहाँ सुख के लक्षण का अभाव है। कर्मचेतना में कर्तृत्व की मुख्यता रहती है एवम् कर्मफलचेतना में भोक्तृत्व की मुख्यता रहती है। इसप्रकार आचार्य ने ज्ञानचेतना, कर्मचेतना एवं कर्मफलचेतना का स्वरूप समझाया। क्या क्षयोपशमज्ञान, ज्ञान नहीं है; क्योंकि ज्ञान का लक्षण स्वपरावभासन है; उसका लक्षण अर्थविकल्पात्मक है। यह लक्षण क्षयोपशमज्ञान रूप सम्यग्ज्ञान में भी घटित होगा एवं मिथ्याज्ञान में भी घटित होगा। यह लक्षण सम्पूर्ण ज्ञानपर्याय में निगोद से लेकर मोक्ष तक की पर्यायों में घटित होगा। तभी वह ज्ञान का लक्षण कहलायेगा, अन्यथा वह ज्ञान का लक्षण नहीं कहलायेगा। ज्ञेयपने को प्राप्त आत्मा की शुद्धता' - ऐसा कहकर आचार्य यह कहना चाहते हैं कि ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार में जिसकी चर्चा की गई थी, वह आत्मा के जाननेवाले स्वभाव की बात थी और यहाँ जिस आत्मा की चर्चा है, वह ज्ञेयभूत आत्मा की बात है। आत्मा ज्ञेय है अर्थात् एक अर्थ है, एक वस्तु है। वह ज्ञेयरूप आत्मा ज्ञानचेतना, कर्मचेतना एवं कर्मफलचेतनावाला है। ज्ञेयतत्त्व को प्राप्त आत्मा की शुद्धता के निश्चय से ज्ञानतत्त्व की सिद्धि होने पर उस आत्मा का स्वभाव ही यदि ज्ञान है तो उस ज्ञेयरूप आत्मा का वर्णन ज्ञानरूप से ही करेंगे। जिसप्रकार पुद्गल भी एक ज्ञेय है और उसका स्वभाव स्पर्श, रस, गंध, वर्ण है। यदि पुद्गल की ज्ञेयरूप से चर्चा करेंगे तो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण की चर्चा भी आयेगी। इसीप्रकार आत्मा की ज्ञेयरूप से चर्चा होगी तो उसमें आत्मा के स्वभाव की भी चर्चा होगी। आचार्य ने उपसंहार में यह कहा कि ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन में ज्ञानस्वभावी जो स्वज्ञेय है; उसकी उपलब्धि होगी और इसी कारण से ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनाधिकार को सम्यग्दर्शनाधिकार भी कहा जाता है। चौदहवाँ प्रवचन २२७ १२६वीं गाथा में अत्यन्त स्पष्टरूप से कहा गया है कि जिस श्रमण ने यह निश्चित किया है कि यह आत्मा ही ज्ञानचेतना, कर्मचेतना एवं कर्मफलचेतना का कर्ता है, कर्म है, करण है; सबकुछ आत्मा के भीतर ही है। परद्रव्य का इसमें कुछ हस्तक्षेप नहीं है - वह श्रमण अन्यरूप परिणमित नहीं होता अर्थात् द्रव्यकर्मों का कर्त्ता नहीं बनता, सम्पूर्ण विश्व का कर्ता-भोक्ता नहीं बनता; उनकेसाथकर्ता, कर्म, करण आदि कारकरूप संबंध स्थापित नहीं करता। ऐसा श्रमण शुद्धात्मा को प्राप्त करता है। आचार्य यहाँ कह रहे हैं कि ऐसा नहीं है कि मैं ज्ञानी हो गया हूँ; इसलिए स्त्री-पुत्र-मकान-जायदाद और द्रव्यकर्म-भावकर्म मेरे नहीं रहे हैं। जब मैं इन सबको अपना मानता था; तब भी ये मेरे नहीं थे; न मैं इनका कर्ता था, न करण था, न कर्म था, न कर्मफल भोक्ता था। ऐसा कहते हुए कई व्यक्ति दिखाई देते हैं कि भाई! मैंने अज्ञानावस्था में बहुत कुछ किया; अब जब से मैं आपके समागम में आया हूँ तो मैंने वे सब काम बंद कर दिये हैं, अब तो मैं केवल अपने आत्मा का ही करता हूँ और कुछ नहीं। पहले मैंने बहुत किया है। अरे भाई! इस आत्मा ने अनादि से पर में कुछ किया ही नहीं है; क्योंकि दोनों के बीच वज्र की दीवार खड़ी है। यहाँ आचार्यदेव ने ज्ञानी को ज्ञानभाव का, एवं अज्ञानी को अज्ञानभाव का कर्त्ता कहा है। यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो संसार का अभाव हो जायेगा; क्योंकि संसार में हम इसी वजह से हैं। यदि हम उसके कर्ता है ही नहीं तो उसके फल के भोक्ता भी नहीं होना चाहिये। अनादिकाल से हम निगोद में रहे हैं, निगोद भी पर्याय है एवं मोक्ष भी पर्याय है; परंतु यह तथ्य भी सम्पूर्ण सत्य है कि जब यह जीव निगोद से लेकर मोक्ष तक की सभी पर्यायों से एकत्वबुद्धि तोड़कर त्रिकाली ध्रुव में एकत्वबुद्धि करेगा, तभी सम्यग्दर्शन होगा। कुछ लोग कहते हैं कि जीवों का घात तो व्यवहारहिंसा है और 110
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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