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________________ २२४ चौदहवाँ प्रवचन जैसाकि तत्त्वार्थसूत्र के नौवें अध्याय के पैंतालीसवें सूत्र में कहा प्रवचनसार का सार तीन कषाय के अभावरूप शुद्ध परिणति विद्यमान रहती है। परिणति पर्याय का ही नाम है अर्थात् वह प्रगट पर्याय में विद्यमान है। इसप्रकार स्व-परावभासन ही ज्ञान है, अर्थविकल्प है। अवभासन अर्थात् आकार का अवलोकन ही विकल्प है। आचार्यदेव ने रागात्मक विकल्प का निषेध किया है। यह स्व है और यह पर है - ऐसा जो ज्ञान में जानना हुआ; यह भी विकल्पात्मक है, इसका निषेध नहीं है। क्षयोपशम ज्ञान दो प्रकार से पाया जाता है। उपयोगरूप से एवं लब्धिरूप से। यहाँ शक्तिरूप से - यह अपेक्षा नहीं लगा सकते हैं; क्योंकि शक्तिरूप से तो हमें केवलज्ञान है, दुनियाँ में जितनी भाषाएँ हैं, उन सबका ज्ञान हमें शक्तिरूप से है। लब्धिरूपज्ञान पर्याय में प्रगट है। इसमें मात्र जिस ज्ञान का उपयोग कर रहे हैं, वही ज्ञान नहीं है; अपितु वह सम्पूर्ण ज्ञान है, जो उस पर्याय में उपलब्ध है। ऐसे ही स्व को जानते समय पर का ज्ञान विद्यमान है। आत्मानुभूति के काल में सम्यग्दर्शन हुआ; पर जब उपयोग बाहर आया, तब भी सम्यग्दर्शन कायम रहता है। अनुभूति को यदि सम्यग्दर्शन कहा जाता तो अनुभूति खतम होते ही समयग्दर्शन खतम हो जाना चाहिए था। अनुभूति में जो त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा ज्ञान का ज्ञेय बना था, उपयोग में आया था, उसने श्रद्धागुण में जो अपनापन स्थापित कर लिया था; वह अपनापन अभी भी कायम है; इसलिए सम्यग्दर्शन कायम है, सम्यग्ज्ञान भी कायम है। जब पर को जानते हैं, तब आत्मा का ज्ञान लब्धि में विद्यमान है और वहाँ सम्यग्ज्ञान भी विद्यमान है एवं दो या तीन कषाय के अभावरूप चारित्रगुण में जितनी शुद्धि हुई है, उतना चारित्र भी विद्यमान है। भोग के काल में भी एवं युद्ध के समय में भी रत्नत्रय अर्थात् मोक्षमार्ग विद्यमान है। चक्रवर्ती लड़ाई कर रहा है तो भी उसके मोक्षमार्ग विद्यमान है, उसके असंख्यगुणी निर्जरा हो रही है। “सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिना: क्रमशोऽसंख्येयगुण निर्जराः । सम्यग्दृष्टि, पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक, विरत-मुनि, अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करनेवाला, दर्शनमोह का क्षय करनेवाला, उपशमश्रेणी माँडनेवाला, उपशांतमोह, क्षपकश्रेणी मांडनेवाला, क्षीणमोह और जिन - इन सबके (अंतर्मुहूर्तपर्यन्त परिणामों की विशुद्धता की अधिकता से आयुकर्म को छोड़कर) प्रतिसमय क्रम से असंख्यातगुणी निर्जरा होती है।" जो दो का ज्ञान एकसाथ नहीं हो सकता - ऐसा मानते हैं; उनका आशय यह है कि जब हमें खाने-पीने का ज्ञान रहता, तब आत्मज्ञान नहीं रहता। जिस समय मैं आत्मा को समझा रहा हूँ; उस समय मेरा उपयोग भाषा पर है, समझाने पर है, श्रोताओं पर है; क्या उस समय मुझे आत्मज्ञान नहीं है ? श्रोताओं को समझाने की प्रक्रिया भी चल रही है और आत्मज्ञान भी है। इसप्रकार इन अनेक पदार्थों का ज्ञान एकसाथ होने में कोई समस्या नहीं है। यह भ्रम हमें अपने मस्तिष्क से निकाल देना चाहिए कि एक समय में एक को ही जान सकते हैं; इसलिए यदि पर को जानेंगे तो स्व को नहीं जान पायेंगे। अत: स्व को जानने के लिए पर को जानना बाधक है, शत्रु है। अरे भाई ! इसप्रकार पर के जानने को शत्रु की श्रेणी में मत रखो; क्योंकि इसमें ज्ञानस्वभाव का निषेध हो जाता है। ___कर्म से उत्पन्न सुख-दुःख वह कर्म फल है। वहाँ द्रव्यकर्मरूप उपाधि की निकटता के असद्भाव के कारण जो कर्म होता है, उसका फल अनाकुलत्व लक्षण प्रकृतिभूत सुख है और द्रव्यकर्मरूप उपाधि की निकटता के सद्भाव के कारण जो कर्म होता है, उसका फल विकृति 109
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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