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________________ प्रवचनसार का सार २०७ २०६ हमने यह अपेक्षा लगाई कि यह पिता का पुत्र ही है; इसका तात्पर्य यह है कि यह पिता का पुत्र ही है, भानजा नहीं। जब अपेक्षा में 'ही' का प्रयोग किया जाता है तो स्वयमेव ही अन्य सभी अपेक्षाओं का निषेध हो जाता है। ___मैंने ‘परमभावप्रकाशक नयचक्र' के पृष्ठ क्र. २०५ पर इसका स्पष्ट उल्लेख किया है कि सर्वथा, एकान्त तथा ही - ये सभी शब्द जब अकेले प्रयुक्त होते हैं, तब मिथ्यात्व के सूचक नहीं होते; किन्तु जब ये आपस में मिलकर एकसाथ प्रयुक्त होते हैं तो मिथ्यात्व के सूचक हो जाते हैं। जैसे - 'सर्वथा-एकान्त', 'सर्वथा ही', एकान्त ही आदि।' इस संदर्भ में विशेष जानकारी के लिए परमभावप्रकाशक नयचक्र का अध्यनन किया जाना चाहिए। प्रमाणसप्तभंगी और नयसप्तभंगी - इसप्रकार सप्तभंगी दो प्रकार की होती है। नय सप्तभंगी में 'ही' लगता है और प्रमाण सप्तभंगी में 'भी' लगता है। जब कथंचित् अथवा स्यात् पद लगाया जाता है तो वहाँ भी' लगाना पड़ता है। 'मैं किसी अपेक्षा आ भी सकता हूँ।' और 'मैं किसी अपेक्षा नहीं भी आ सकता हूँ।' मेरे ऐसा कहने पर सामनेवाला कहता है कि - इससे काम नहीं चलेगा, आप साफ-साफ बताइये; तब अपेक्षा स्पष्ट करनी पड़ती है कि - 'मेरी तबियत ठीक नहीं रही तो, उसमें यह परिस्थिति छिपी हुई है। प्रमाणसप्तभंगी में कहते हैं कि 'स्यात् अस्ति' और 'स्यात् नास्ति' अर्थात् किसी अपेक्षा से है 'भी' और किसी अपेक्षा से नहीं भी' है। जब स्याद् या कथंचित् शब्द न लगाकर अपेक्षा बता देते हैं; तब 'ही' लगाना चाहिए; जैसे कि द्रव्यार्थिकनय से वस्तु नित्य ही है। हम व्यवहार में बोलते हैं कि यह किसी का पिता है, यह किसी का भानजा है, यह किसी का मामा है - यह कथन उचित है; यह किसी का तेरहवाँ प्रवचन पिता भी है - यह कथन भी उचित है; परंतु यह इसका पिता भी है - यह कथन उचित नहीं है। यदि अपेक्षा स्पष्ट कर दी जाएगी तो 'ही' लगाना ही होगा। ___यदि 'ही' व 'भी' के प्रयोग में सावधानी नहीं रखी गई तो खतरा उत्पन्न हो सकता है। 'ही' की जगह 'भी' का प्रयोग एवं 'भी' की जगह 'ही' का प्रयोग अर्थ का अनर्थ कर सकता है। ध्यान रहे प्रमाणसप्तभंगी में भी लगता है एवं नयसप्तभंगी में 'ही' लगता है। ____ जहाँ ‘एव' लगता है, वह नयसप्तभंगी है; उसमें उस कथन को दृढ़ता प्रदान करने के लिए अपेक्षा लगाई गई है। यदि दृढ़ता प्रदान करना है तो उसमें अपेक्षा का उद्घाटन भी जरूरी है। वहाँ मात्र 'किसी अपेक्षा' - ऐसा कहने से काम नहीं चलेगा। सरल शब्दों में सप्तभंगी का स्वरूप समझने के लिए सर्वप्रथम मूलभंगों को समझना आवश्यक है । सत् अर्थात् अस्ति और असत् अर्थात् नास्ति ये दो मूलभंग हैं। ___इन्हें मूलभंग इसलिए माना जाता है; क्योंकि यदि नित्य की अपेक्षा लगायेंगे तो उसमें कथंचित् नित्यमस्ति' यह कहने पर यहाँ अस्ति को समाहित किया गया है। ऐसे सभी भंगों में यह अपेक्षा लगती है। यह मूल भंग इसलिए है; क्योंकि इसके बिना काम चलता ही नहीं है। ये अस्ति और नास्ति तो अकेले लगते हैं; लेकिन और कोई भंग अकेले नहीं लगते हैं। स्यादस्ति अर्थात् स्यात् है, स्याद्नास्ति अर्थात् स्यात् नहीं है। अस्ति-नास्ति के अतिरिक्त स्याद् अवक्तव्य भी अकेला लगता है; लेकिन नित्य या भिन्न अकेले नहीं लगते हैं। इनके साथ है' या नहीं है' लगाने पड़ते हैं। अब, आचार्य समन्तभद्र ने यह कहा है कि - तत्त्व त्रयात्मक है; इसलिए भंग सात बनते हैं। ___ 100
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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