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________________ तेरहवाँ प्रवचन प्रवचनसार परमागम के ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के अन्तर्गत सामान्यज्ञेयाधिकार की चर्चा चल रही है। जगत में जितनी वस्तुएँ हैं, वे सभी ज्ञेय हैं; ज्ञान का विषय होने के कारण ही उन्हें ज्ञेय कहा जाता है। ‘मामा' यह नाम भानजे की अपेक्षा से है, 'पिता' यह संज्ञा पुत्र की अपेक्षा से है। ऐसे ही समस्त पदार्थों की जो 'ज्ञेय' नामक संज्ञा है, वह ज्ञान की अपेक्षा से है, 'प्रमेय' नामक संज्ञा प्रमाण की अपेक्षा से है। इसी आधार पर बड़े-बड़े न्याय के ग्रन्थों के नाम प्रमेयरत्नमाला एवं प्रमेयकमलमार्तण्ड रखे गए हैं। इसी आधार पर इस महाधिकार का नाम 'ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार' रखा गया है। इसी संदर्भ में अमृतचन्द्राचार्य ने ११५वीं गाथा की टीका में सप्तभंगी अर्थात् सात भंगों की चर्चा की है; जो इसप्रकार है - प्रत्येक पदार्थ (१) स्वरूप से 'सत्' है (२) पररूप से 'असत्' है (३) स्वरूप और पररूप से युगपत् 'कथन' अशक्य है; अतः अवक्तव्य है (४) स्वरूप से और पररूप से क्रमशः 'सत् और असत्' है (५) स्वरूप से और स्वरूप-पररूप से युगपत् 'सत् और अवक्तव्य' है' (६) पररूप से और स्वरूप-पररूप से युगपत् 'असत् और अवक्तव्य' है तथा (७) स्वरूप से, पररूप से और स्वरूप - पररूप से युगपत् सत्-असत् और अवक्तव्य है। जिनके यहाँ सप्तभंगी नहीं है, उनके यहाँ 'एव' यह शब्द जहरीला है । 'एव' अर्थात् 'ऐसा ही है।' वस्तु नित्य ही है, इसमें वस्तु के अनित्यत्व धर्म का सर्वथा निषेध हो जाता है; इसलिए वह शब्द जहरीला है। लोक में जिसे जहर कहा जाता है; उसे भी यदि सावधानी से प्रयोग किया जाय तो वह औषधि बन जाती है। जितनी भी औषधियाँ बनी हैं; उनमें आधी से अधिक जहर से बनती हैं; क्योंकि बीमारी के कारण 99 तेरहवाँ प्रवचन २०५ शरीर के अंदर जो जहर उत्पन्न हुआ है, उसे मारने के लिए दूसरा जहर चाहिए; लेकिन वह शोधित होना चाहिए । ऐसे ही यद्यपि एवकार जहरीला है; परंतु यदि वह सप्तभंगी द्वारा संशोधित होता है तो वह जहर औषधि बन जाती है। इसलिए आचार्य ने सप्तभंगी को अमोघमंत्र कहा है। आज, किसी को यदि साँप काटता है तो उसे अस्पताल ले जाते हैं; परंतु पहले मन्त्रवादी होते थे, जो मन्त्र से जहर उतारते थे । इसलिए आचार्य ने यहाँ मन्त्र शब्द प्रयोग किया है। एवकार में जो जहर है, उस जहर को उतारने के लिए हमारे पास सप्तभंगीरूपी अमोघ (अचूक) मंत्र है। यह सप्तभंगीरूपी मंत्र उस एवकार के जहर को दूर कर देता है। जब अपेक्षा नहीं लगती है, तब एवकार जहर होता है। वस्तु द्रव्यार्थिकनय से नित्य ही है। यह कथन जहरीला नहीं है; क्योंकि इसमें 'द्रव्यार्थिक नय से' यह अपेक्षा लगी है। इसे हम ऐसा भी कह सकते हैं कि वस्तु द्रव्यदृष्टि से नित्य ही है। यह मामा की अपेक्षा भानजा है; इसमें हमने कोई नय नहीं लगाया है; परंतु अपेक्षा बता दी है। जहाँ नय लगा दिया है; वहाँ उस कथन में अपेक्षा निहित है एवं जहाँ अपेक्षा लगा दी गई है, वहाँ उस कथन में नय भी निहित है। जहाँ अपेक्षा लगाई जाती है, वहाँ 'ही' शब्द का जहर खतम हो जाता है। इस पर यदि कोई ऐसा कहे कि जब 'ही' और 'सर्वथा' शब्द जहरीले हैं; तब हम उन शब्दों का प्रयोग ही क्यों करें ? आचार्य कहते हैं कि 'अपेक्षा' का अपना एक महत्त्व है, उसका कोई अर्थ है, उसका कोई कार्य है। 'अपेक्षा' उस कथन में दृढ़ता प्रदान करती है। यदि दृढ़ता नहीं रहेगी तो कथन ढुलमुल हो जाएगा। इसलिए उस कथन में दृढ़ता प्रदान करने के लिए 'ही' लगाना जरूरी है।
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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