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________________ १३६ प्रवचनसार अनुशीलन इसप्रकार इस गाथा में मात्र इतना ही कहा गया है कि प्रत्येक द्रव्य अवस्थित भी है और अनवस्थित भी है; द्रव्यदृष्टि से अवस्थित है और पर्यायदृष्टि से अनवस्थित है। एक ही द्रव्य के एकसाथ अवस्थित और अनवस्थित होने में कोई विरोध नहीं है; क्योंकि ये दोनों प्रत्येक द्रव्य के सहज स्वभाव हैं। एक द्रव्यस्वभाव है और दूसरा पर्यायस्वभाव है। द्रव्यों के अवस्थित और अनवस्थित होने में परद्रव्य का कोई सहयोग नहीं है, हस्तक्षेप नहीं है। इस बात को ऐसे भी कहा जाता है कि द्रव्य के स्वभाव की ओर से देखा जाय तो उत्पाद और नाश एक ही हैं; क्योंकि वे द्रव्य के सहज स्वभाव हैं । द्रव्य में उत्पाद-व्यय होने के लिए न तो पर के सहयोग की आवश्यकता है और न किसी कर्मोदय की अपेक्षा है। अब यदि दोनों को पर्यायस्वभाव की ओर से देखें तो अलग-अलग ही हैं, एक नहीं; क्योंकि एक का स्वभाव उत्पन्न होनेरूप है और दूसरे का स्वभाव नष्ट होनेरूप है, एक आनेरूप है और दूसरा जानेरूप है। यह सब हम सभी को प्रत्यक्ष दिखाई देता है; अत: इसमें किसी भी प्रकार की शंका- आशंका करने की जरूरत नहीं है। निजात्मा के प्रति अरुचि ही उसके प्रति अनन्त क्रोध है। जिसके प्रति हमारे हृदय में अरुचि होती है, उसकी उपेक्षा हमसे सहज ही होती रहती है। अपनी आत्मा को क्षमा करने और क्षमा माँगने का मात्र आशय यही है कि हम उसे जानें, पहिचानें और उसी में रम जायें। स्वयं को क्षमा करने और स्वयं से क्षमा माँगने के लिए वाणी की औपचारिकता की आवश्यकता नहीं है। निश्चयक्षमावाणी तो स्वयं के प्रति सजग हो जाना ही है। उसमें पर की अपेक्षा नहीं रहती तथा आत्मा के आश्रय से क्रोधादिकषायों के उपशान्त हो जाने से व्यवहारक्षमावाणी भी सहज ही प्रस्फुटित होती है। - धर्म के दशलक्षण, पृष्ठ- १८५ प्रवचनसार गाथा १२० विगत गाथा में यह कहा था कि द्रव्य द्रव्यस्वभाव से अवस्थित होने पर भी पर्यायस्वभाव से अनवस्थित भी है और अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि ऐसा क्यों है ? तात्पर्य यह है कि द्रव्य के अनवस्थित होने का हेतु क्या है ? गाथा मूलतः इसप्रकार है तम्हा दु णत्थि कोई सहावसमवट्ठिदो त्ति संसारे । संसारो पुण किरिया संसरमाणस्स दव्वस्स ।। १२० ।। ( हरिगीत ) स्वभाव से ही अवस्थित संसार में कोई नहीं । संसरण करते जीव की यह क्रिया ही संसार है ।। १२० ।। इसलिए इस लोक में स्वभाव से अवस्थित कोई नहीं है। तात्पर्य यह है कि संसार में किसी का भी स्वभाव सदा एकरूप रहनेवाला नहीं है; क्योंकि संसार संसरण का ही नाम है। यह संसार संसरण करते हुए परिवर्तनशील द्रव्य की क्रिया है। इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - " 'वस्तुतः जीव द्रव्यपने से अवस्थित होने पर भी पर्यायों से अनवस्थित है। इससे प्रतीत होता है कि संसार में कोई भी स्वभाव से अवस्थित नहीं है । तात्पर्य यह है कि किसी भी द्रव्य का स्वभाव अकेला एकरूप रहने का ही नहीं है और इस अनवस्थितता का मूल हेतु संसार ही है; क्योंकि वह मनुष्यादि पर्यायात्मक है, वह स्वरूप से ही वैसा है। उसमें परिणमन करते हुए द्रव्य की पूर्वोत्तर दशा के त्याग-ग्रहणरूप क्रिया का नाम ही संसार है, यही संसार का स्वरूप है।" इस गाथा के भाव को आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र की तत्त्वप्रदीपिका के अनुसार ही स्पष्ट करते हैं।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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