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________________ गाथा-११९ १३४ प्रवचनसार अनुशीलन नष्ट होता है; क्योंकि पर्याय का जो उत्पाद है, वही व्यय है। उत्पाद और व्यय की दशा तो अनेक पर्यायों में ही शोभायमान है। ध्रुव द्रव्य उनके स्वांग धरिके गति-गति में नाचता-फिरता है। पर्यायार्थिकनय के आधार से ऐसा निर्धार होता है; किन्तु द्रव्यार्थिक नय से तो द्रव्य एकमात्र निजरस में पगा हुआ है। पण्डित देवीदासजी प्रवचनसारभाषाकवित्त में इस गाथा का भाव १ कुण्डलिया में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (कुण्डलिया) विनसै छिन छिन प्रति सुजिय जाकी ही उतपत्य। पुनि उपजै विनसै नहीं निश्चयनय करि सत्य ।। निश्चयनय करि सत्य जो सु उतपाद बताई। सोई वस्तु विनास रूप ताथै थिरताई ।। भेद लगै व्यवहार सौं सु जग मैं जिय जिन सै। विविध भांति परजाय लियै उपजै अरु विनसै ।।४८।। जिस जीव का उत्पाद और विनाश क्षण-क्षण में होता है; वही जीव निश्चयनय से न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है - यही परमसत्य है। निश्चयनय से जो वस्तु उत्पन्न होती है, वही वस्तु विनाशरूप है; इसलिए स्थिर है। निश्चयनय से यही सत्य है, पर व्यवहारनय से भेद खड़ा किया जाता है; तब अनेक प्रकार की पर्यायें उत्पन्न और नाश को प्राप्त होती हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “जीव ऐसे का ऐसा रहता है अर्थात् ध्रुवदृष्टि से जीव अवस्थित है और क्षण-क्षण में अवस्था बदलती है, इसीलिए अवस्थादृष्टि से अनवस्थित है अर्थात् अस्थिर है। ऐसा अवस्थादृष्टि से कहा है; किन्तु कर्म के कारण अस्थिर है - ऐसा नहीं कहा।' जीव ऐसे का ऐसा रहे - यह जीव का द्रव्यस्वभाव है और पूर्व अवस्था दूर होकर नई अवस्था हुई - यह जीव का पर्यायस्वभाव है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-३७६ आत्मा अपने द्रव्यस्वभाव और पर्यायस्वभाव को यथार्थ समझे तो अपना बंधु है और अज्ञान के कारण पराधीनता माने और नहीं समझे तो स्वयं अपना बैरी है। 'जो घड़ा है, वही सुराही हैं' - यदि ऐसा कहना हो तो घड़े का स्वरूप और सुराही का स्वरूप तो पृथक्-पृथक् है, उसे एकत्व लागू नहीं पड़ता। यदि घड़े और सुराही में एकत्व सिद्ध करना हो तो मिट्टी की अपेक्षा उनमें एकत्व है; क्योंकि मिट्टी उनमें अवस्थित है। 'जो उत्पाद है, वही व्यय है' - यदि ऐसा कहना हो, तब उत्पाद और नाश में द्वैत सिद्ध होता है, एकत्व सिद्ध नहीं होता; किन्तु उत्पाद और नाश का आधारभूत ध्रुव दोनों में एक है। ध्रुव में एकत्व सिद्ध होता है, वह ऐसे का ऐसा स्थिर रहता है।' तथा घड़ा अन्य है और सुराही अन्य है' - ऐसा कहना हो तब दोनों का आधार जो मिट्टी है, उसमें अनेकत्व सिद्ध नहीं होता, किन्तु घड़े और सुराही का अनेकत्व प्रगट होता है। मिट्टी में पर्यायदृष्टि से अनवस्थितपना होता है, मिट्टी घड़ेरूप, सुराहीरूप उसके पर्यायस्वभाव के कारण हुई है। किन्तु कुम्हार, चक्र, दण्ड आदि के कारण अन्यरूप नहीं हुई। 'अन्य उत्पाद है और अन्य विलय हैं' - ऐसा कहना हो तब उन दोनों का आधार जो ध्रुव है, उसमें अनन्यपना है, अन्यत्व असम्भावित है। उत्पाद और व्यय दोनों को लिया जाए तो दोनों का पृथक्-पृथक् स्वरूप निश्चित होता है। जीव के स्वयं के अनवस्थित पर्यायस्वभाव के कारण पूर्व अवस्था का नाश होता है और नई अवस्था का उत्पाद है, किन्तु पर-पदार्थों के कारण उत्पाद अथवा व्यय होते ही नहीं। उत्पाद-व्ययरूप होना यह सभी द्रव्यों का पर्याय अपेक्षा से अनवस्थित धर्म है। यहाँ तो स्वभाव की ही बात है।' जीव में एकत्व देखना हो तो उसमें ध्रुवस्वभाव से एकत्व है और जीव में अनेकत्व देखना हो तो उसके अध्रुवस्वभाव से अनेकत्व है।" १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-३७६ २. वही, पृष्ठ-३७७ ३. वही, पृष्ठ-३७७ ४. वही, पृष्ठ-३७८ ५. वही, पृष्ठ-३७८ ६. वही, पृष्ठ-३७९
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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