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________________ 474 प्रवचनसार कलश पद्यानुवाद प्रवचनसार अनुशीलन सप्रदेशी आतमा रुस-राग-मोह कषाययुत / हो कर्मरज से लिप्त यह ही बंध है जिनवर कहा / / 188 / / यह बंध का संक्षेप जिनवरदेव ने यतिवृन्द से। नियतनय से कहा है व्यवहार इससे अन्य है / / 189 / / तन-धनादि में 'मैं हूँ यह' अथवा 'ये मेरे हैं' सही। ममता न छोड़े वह श्रमण उनमार्गी जिनवर कहें / / 190 / / पर का नहीं ना मेरे पर मैं एक ही ज्ञानात्मा। जो ध्यान में इस भाँति ध्यावे है वही शुद्धात्मा / / 191 / / इसतरह मैं आतमा को ज्ञानमय दर्शनमयी। ध्रुव अचल अवलंबन रहित इन्द्रियरहित शुध मानता / / 192 / / अरि-मित्रजन धन्य-धान्यसुख-दुख देह कुछ भी ध्रुव नहीं। इस जीव के ध्रुव एक ही उपयोगमय यह आतमा / / 193 / / यह जान जो शुद्धातमा ध्यावें सदा परमातमा। दुठ मोह की दुर्ग्रन्थि का भेदन करें वे आतमा / / 194 / / मोहग्रन्थी राग-रुष तज सदा ही सुख-दुःख में। समभाव हो वह श्रमण ही बस अखयसुख धारण करें / / 195 / / आत्मध्याता श्रमण वह इन्द्रियविषय जो परिहरे / स्वभावथित अवरुद्ध मन वह मोहमल का क्षय करे / / 196 / / घन घातिकर्म विनाश कर प्रत्यक्ष जाने सभी को। संदेहविरहित ज्ञेय ज्ञायक ध्यावते किस वस्तु को / / 197 / / अतीन्द्रिय जिन अनिन्द्रिय अर सर्व बाधा रहित हैं। चहुँ ओर से सुख-ज्ञान से समृद्ध ध्यावे परमसुख / / 198 / / निर्वाण पाया इसी मग से श्रमण जिन जिनदेव ने। निर्वाण अर निर्वाणमग को नमन बारंबार हो / / 199 / / इसलिए इस विधि आतमा ज्ञायकस्वभावी जानकर / निर्ममत्व में स्थित मैं सदा ही भाव ममता त्याग कर / / 200 / / सुशुद्धदर्शनज्ञानमय उपयोग अन्तरलीन जिन / बाधारहित सुखसहित साधु सिद्ध को शत्-शत् नमन / / 14 / / ' •आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा 14 (मनहरण ) जिसने बताई भिन्नता भिन्न द्रव्यनि से। और आतमा एक ओर को हटा दिया / / जिसने विशेष किये लीन सामान्य में। और मोहलक्ष्मी को लूट कर भगा दिया।। ऐसे शुद्धनय ने उत्कट विवेक से ही। निज आतमा का स्वभाव समझा दिया।। और सम्पूर्ण इस जग से विरक्त कर / इस आतमा को आतमा में ही लगा दिया।।७।। इस भाँति परपरिणति का उच्छेद कर। करता-करम आदि भेदों को मिटा दिया / / इस भाँति आतमा का तत्त्व उपलब्ध कर। कल्पनाजन्य भेदभाव को मिटा दिया। ऐसा यह आतमा चिन्मात्र निरमल / सुखमय शान्तिमय तेज अपना लिया। आपनी ही महिमामय परकाशमान / रहेगा अनंतकाल जैसासुख पा लिया / / 8 / / (दोहा) अरे द्रव्य सामान्य का अबतक किया बखान। अब तो द्रव्यविशेष का करते हैं व्याख्यान / / 9 / / ज्ञेयतत्त्व के ज्ञान के प्रतिपादक जो शब्द / उनमें डुबकी लगाकर निज में रहें अशब्द / / 10 / / शुद्ध ब्रह्म को प्राप्त कर जग को कर अब ज्ञेय / स्वपरप्रकाशक ज्ञान ही एकमात्र श्रद्धेय / / 11 / / चरण द्रव्य अनुसार हो द्रव्य चरण अनुसार। शिवपथगामी बनो तुम दोनों के अनुसार / / 12 / /
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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