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________________ गाथा-९७ ४० प्रवचनसार अनुशीलन समस्त पदार्थ हैं - ऐसा कहने की योग्यता वचन की है। समस्त पदार्थ हैं, ऐसा जानने की योग्यता ज्ञान में है और समस्त पदार्थ हैं - ऐसी सत् सामान्यरूप ज्ञेयत्व की योग्यता उनमें है। सामान्य सत् का एकरूप होना मानने पर भी प्रत्येक के पृथक्त्व का नाश नहीं होता, अपितु प्रत्येक रजकण-रजकण पृथक् रहता है।" उक्त कथन का सार यह है कि सत्ता दो प्रकार की है - अवान्तरसत्ता और महासत्ता । अवान्तरसत्ता स्वरूपास्तित्व है; जो प्रत्येक द्रव्य में पृथक्पृथक् है और उसके प्रदेशों, गुणों और पर्यायों में व्याप्त है। महासत्ता वह सत्ता है, जो सामान्यरूप से सभी द्रव्यों में व्याप्त है, उनके गुण-पर्यायों में व्याप्त है। इसे सादृश्यास्तित्व भी कहते हैं। इस बात का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है कि हमें अपना अपनत्व स्वरूपास्तित्व में रखना है, सदृशता के आधार पर सभी पदार्थों में नहीं। स्वरूपास्तित्व में द्रव्य-गुण-पर्याय को मिलाकर एक इकाई बनाई गई है। यह समयसार में वर्णित इकाई नहीं है; जिसमें द्रव्य से पर्याय को भिन्न कहा गया है, प्रदेशभेद एवं गुणभेद को भी भिन्न कहा गया है। यहाँ द्रव्य-गुण-पर्याय को मिलाकर एक इकाई है, जिसे स्वरूपास्तित्व कहा गया है। प्रश्न - हमसे अतिरिक्त जो द्रव्य हैं, उनके साथ हमारी जो एकता की कल्पना है, वह किस आधार पर है, उसमें क्या हेतु है ? उत्तर - इसमें हेतु मात्र इतना ही है कि वे भी हैं और हम भी हैं; इसप्रकार मात्र अस्तित्व का हेतु है। इसप्रकार मात्र 'है' की रिश्तेदारी है। मेरे और गधे के सींग में कोई संबंध नहीं है। क्योंकि गधे के सींग की न तो अवान्तरसत्ता है और न ही महासत्ता है; क्योंकि वह है ही नहीं और मैं हूँ। इसप्रकार तुम भी हो और मैं भी हूँ - इसप्रकार यहाँ है' का संबंध है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-११७ २ . वहीं, पृष्ठ-१२४ अब आचार्य कह रहे हैं कि जिसने मात्र अस्तित्व संबंध के आधार पर स्वरूपास्तित्व को भूलकर किसी पर से अपनापन स्थापित कर लिया; वह मिथ्यादर्शन का धारी मिथ्यादृष्टि है। समयसार में यह बताया था कि सादृश्यास्तित्व के आधार पर स्वरूपास्तित्व को भूलकर संबंध स्थापित कर लेना मिथ्यात्व है तथा प्रवचनसार में यह बताया जा रहा है कि उससे मिथ्यात्व न हो जाय - इस डर से उस महासत्तावाले तथ्य से इन्कार करना भी मिथ्यादर्शन ही है। महासत्ता से लेकर अवान्तरसत्ता के मध्य अनन्त सत्ताएँ हैं। हम सब एक हैं' - इसमें शुद्धमहासत्ता की अपेक्षा है। इसके पश्चात् 'हम सब मनुष्य हैं' - इसमें भी अशुद्धमहासत्ता की अपेक्षा है। हम सब ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा हैं' - यह भी महासत्ता ही है, सादृश्यास्तित्व ही है। अवान्तरसत्ता अपने द्रव्य-गुण-पर्याय के बाहर नहीं निकलती है; जबकि महासत्ता में सबको शामिल किया गया है। इसप्रकार महासत्ता और अवान्तरसत्ता के मध्य अगणित सत्ताएँ हैं। जिसमें सबकुछ आ जाय, वह शुद्धमहासत्ता है और जिसमें सबकुछ तो न आवे; पर बहुतकुछ आ जाय; वह अशुद्धमहासत्ता है। हम सब हैं' यह शुद्धमहासत्ता का उदाहरण है और हम सब मनुष्य हैं' - यह अशुद्धमहासत्ता का उदाहरण है। शुद्धसंग्रहनय में शुद्धमहासत्ता की विवक्षा है और अशुद्धसंग्रहनय में अशुद्धमहासत्ता की विवक्षा है । ऋजुसूत्रनय मात्र अवान्तरसत्ता को ग्रहण करता है। व्यवहारनय शुद्धमहासत्ता में तबतक भेद करता है कि जबतक अवान्तरसत्ता तक न पहुँच जावें । इसीप्रकार संग्रहनय अवान्तर सत्ताओं का तबतक संग्रह करता है कि जबतक शुद्ध महासत्ता तक न पहुँच जावें। ये संग्रहनय और व्यवहारनय परस्पर विरुद्ध कार्य करनेवाले भी हैं और एक-दूसरे के पूरक भी हैं। व्यवहारनय हमें शुद्धमहासत्ता से अवान्तरसत्ता तक लाता है और
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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